मैसूर दशहरे की जंबो सवारी

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  • Monday 14 September 2009
  • by
  • श्रीकांत पाराशर
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  • मैसूर। हमेशा की तरह इस बार भी दशहरा महोत्सव के अंतिम दिन 'विजयादशमी' के मौके पर सबकी नजर मैसूर के वाडेयार राजघराने की दो खास धरोहरें सबका ध्यान खींचेंगी। इनमें से एक है वाडेयार राजघराने का सोने का सिंहासन तथा जंबो सवारी के मौके पर सबसे आगे चलने वाले हाथी की पीठ पर रखा जाने वाला सोने का हौदा। विजयादशमी के दिन वाडेयार राजघराने के अन्तिम उत्तराधिकारी श्रीकांतदत्त नरसिंहराज वाडेयार अपने पुरखों के दरबार में आयोजित होने वाले एक प्रतीकी कार्यक्रम के दौरान सोने के सिंहासन पर आरूढ़ होंगे तो उसी दिन 750 किलोग्राम वजनी हौदे पर मैसूर की अधिष्ठात्री देवी चामुंडेश्वरी की प्रतिमा जंबो सवारी में शामिल की जाएगी। इन दोनों के समृध्द इतिहास तथा इनसे जुड़ी परंपरा के कारण प्रत्येक वर्ष दशहरे के कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले दर्शक तथा पर्यटक इनके बारे में खास दिलचस्पी लेते हैं।
    ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक, वाडेयार शासकों का बहुमूल्य स्वर्ण सिंहासन मूलत: महाभारतकाल के पांडवों का सिंहासन हुआ करता था। वर्ष 1338 में विजयनगर साम्राज्य के राजगुरु विद्यारण्य ने इस सिंहासन को खोज निकाला। उल्लेखनीय है कि राजगुरु विद्यारण्य की मदद से ही विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की गई थी। समूचे दक्षिण भारत के इस महान साम्राज्य के संस्थापकों में से एक हरिहर प्रथम के वे गुरु थे। हरिहर के सिंहासनारोहण के लिए इसी स्वर्ण सिंहासन का प्रयोग किया गया था। विजयनगर साम्राज्य के अस्तित्व के एक सौ वर्षों के इतिहास में कई शासक इस सिंहासन पर बैठे। बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर की संयुक्त सेना के हमले से विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद यह सिंहासन केलादी तथा इक्केरी के नायकों के हाथ लग गया। मैसूर के वाडेयार राजघराने के शासकों को यह सिंहासन वर्ष 1609 में इन्हीं नायकों में से एक श्रीनर्य से मिला। राजा वाडेयार वर्ष 1610 में जिस दिन इस सिंहासन पर आरूढ़ हुएवह विजयादशमी का ही दिन था। इसके साथ ही वाडेयार शासकों द्वारा विजयादशमी मनाने की परंपरा शुरू हुई।
    यह सिंहासन काफी समय के लिए वाडेयार राजघराने के पास नहीं रहा। वर्ष 1799 में टीपू सुल्तान द्वारा स्थापित साम्राज्य के पतन के बाद श्रीरंगपटना स्थित टीपू महल से यह सिंहासन दोबारा खोज निकाला गया। वाडेयार राजघराने के उत्तराधिकारी राजा वाडेयार तृतीय इस सिंहासन पर आरूढ़ हुए। तब से यह सिंहासन वाडेयार राजघराने के पास ही रहा। उल्लेखनीय है कि इस सिंहासन का निर्माण मूलत: पीपल की लकड़ी से किया गया था। इसके बारे में राजा कृष्णराज वाडेयार तृतीय द्वारा वर्ष 1859 में रचित कृति 'देवतानाम कुसुमांजरी' में पूरी व्याख्या है। इस सिंहासन तक पहुंचने के लिए बनी सीढ़ियों को मजबूती देने के लिए बनी संरचनाओं में विभिन्न देवी-देवताओं की लघु-प्रतिमाएं बनी हुई हैं। इसके दक्षिण में भगवान ब्रह्मा, उत्तर में भगवान महेश्वर तथा केन्द्र में भगवान विष्णु की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। इसके चारों कोनों पर भी विभिन्न देवताओं तथा चार सिंह प्रतिमाओं के साथ ही भारतीय मिथकों में वर्णित 'ंशार्दूल', दो घोड़े तथा राजहंसों की प्रतिमाएं एवं चित्र बने हुए हैं। सिंहासन पर बनी सोने की छतरी पर अनुष्टुभ छंद में 24 श्लोक लिखे गए हैं।
    पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस सिंहासन की जहां ऊंचाई मूल सिंहासन की अपेक्षा बढ़ाई गई है वहीं इसमें कई अन्य परिवर्तन भी किए गए हैं। इसके आसन तक पहुंचने के लिए मूल सिंहासन में बनी सीढ़ियों की संख्या भी बढ़ाई गई है। इन परिवर्तनों के बावजूद सिंहासन की मूल सजावटी विशेषताओं को बरकरार रखा गया है। मैसूर महल में इस सिंहासन के साथ ही कई अन्य खास सिंहासन भी हैं जिनमें देवी चारमुंडेश्वरी की प्रतिमा सहित मयूर वज्रासन सिंहासन मुख्य है। एक अन्य सिंहासन सिंह वज्रासन का उपयोग वाडेयार राजघराने के शासक तथा उनकी पत्नी के द्वारा किया जाता था। अब तक इसका उपयोग राजघराने के अंतिम उत्तराधिकारी श्रीकांतदत्त नरसिंहराज वाडेयार द्वारा दशहरे के दौरान आयोजित होनेवाले विभिन्न कार्यक्रमों में किया जाता है।
    इस ऐतिहासिक सिंहासन को राज्य सरकार ने अब अपने नियंत्रण में ले लिया है तथा दशहरा जंबो सवारी के मौके पर ही इसे आम जनता को प्रदर्शित करने के लिए राजकीय खजाने से निकालकर मैसूर महल परिसर में रखा जाता है।
    इस सिंहासन की ही तरह वाडेयार राजघराने के शासकों के हौदे को भी दशहरे की जंबो सवारी के दौरान मुख्य आकर्षण माना जाता है। इस हौदे को कब बनाया गया इस बारे में सटीक ऐतिहासिक तथ्य नहीं मिलते हैं लेकिन माना जाता है कि इसे वाडेयार राजघराने के सिध्दहस्त स्वर्णकारों द्वारा ही बनाया गया होगा। दशहरे के मौके पर हाथियों की पीठ पर रखे जानेवाले इस शानदार हौदे पर सवार होकर वाडेयार शासक तथा उनके परिवार के सदस्य मैसूर की प्रमुख सड़कों से गुजरा करते थे। वर्ष 1970 से दशहरा जंबो सवारी के मौके पर इस हौदे पर मैसूर की अधिष्ठात्री देवी चामुंडेश्वरी को बिठाने का चलन शुरू हुआ।

    2 comments:

    Smart Indian said...

    ऐतिहासिक सिंहासन की इस अनूठी जानकारी के लिए धन्यवाद!

    संगीता पुरी said...

    मैसूर के दशहरे की बहुत ही रोचक जानकारी दी है !!