चार शताब्दी पुरानी है मैसूर दशहरे की भव्य परंपरा

कर्नाटक की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले मैसूर के नाम से कई खास चीजें जुड़ी हुई हैं-मैसूर मल्लिगे (विशेष पुष्प), मैसूर के रेशमी वस्त्र, राजमहल, मैसूर पाक (मिष्टान्न), मैसूर पेटा (पगड़ी), मैसूर विल्यदले(पान) तथा और भी बहुत-सारी चीजें। ये सब कुछ मैसूर और इसके जीवन की पहचान हैं लेकिन ये पहचान तब तक अधूरी रहती हैं जब तक इस शहर में पिछले 400 वर्षों से लगातार मनाए जा रहे दशहरा उत्सव की बात न की जाए। यह मैसूर को राज्य के अन्य जिलों और शहरों से अलग करता है। पूर्व में इसे 'नवरात्रि' के नाम से ही जाना जाता था लेकिन वाडेयार राजवंश के लोकप्रिय शासक कृष्णराज वाडेयार के समय में इसे दशहरा कहने का चलन शुरू हुआ। भारत ही नहीं, कई बाहरी देशों में भी इस उत्सव की बढ़ती लोकप्रियता को ध्यान में रखते हुए इस वर्ष राज्य सरकार ने इसे राज्योत्सव(नाद हब्बा) का दर्जा दिया है।

पारंपरिक उत्साह और धूम-धाम के साथ मनाया जानेवाला यह आसुरी शक्तियों पर देवत्व के विजय का दस दिवसीय उत्सव इस साल अक्टूबर महीने में आ रहा है। शासन और प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर इसकी तैयारियां एक माह पहले से ही शुरू हो चुकी हैं। मैसूर शहर में इसका असर भी दिखने लगा है। हालांकि समय के साथ दशहरा उत्सव में काफी परिवर्तन आए हैं लेकिन इसके साथ जुड़ा उमंग का भाव कतई नहीं बदला है। दशहरा के मौसम के साथ मैसूर पूरी तरह घुल-मिल चुका है।

दशहरे की इस परंपरा का इतिहास मध्यकालीन दक्षिण भारत के अद्वितीय विजयनगर साम्राज्य के समय से शुरू होता है। हरिहर और बुक्का नाम के दो भाइयों द्वारा 12-13 वीं शताब्दी में स्थापित इस साम्राज्य में दशहरा उत्सव मनाया जाता था। इसकी राजधानी हम्पी के दौरे पर पहुंचे कई विदेशी  पर्यटकों ने अपने संस्मरणों तथा यात्रा वृत्तान्तों में इस विषय में लिखा है। इनमें डोमिंगोज पेज, फर्नाओ नूनिज और रॉबर्ट सीवेल जैसे पर्यटक भी शामिल हैं। इन लेखकों ने हम्पी में मनाए जाने वाले दशहरा उत्सव के बारे में काफी विस्तार से लिखा है। विजयनगर शासकों की यही परंपरा वर्ष 1399 में मैसूर पहुंची जब गुजरात के द्वारका से पुरगेरे(मैसूर का प्राचीन नाम) पहुंचे दो भाइयों यदुराय और कृष्णराय ने वाडेयार राजघराने की नींव डाली। यदुराय इस राजघराने के पहले शासक बने। उनके पुत्र चामराज वाडेयार प्रथम ने पुरगेरे का नाम 'मैसूर' रखा। उन्होंने विजयनगर साम्राज्य की अधीनता भी स्वीकार की।

विजयनगर के प्रतापी शासकों के दिग्दर्शन में वर्ष 1336 से 1565 तक  मैसूर शहर सांस्कृतिक और सामाजिक ऊंचाई की शिखर की तरफ बढ़ता गया। वास्तव में यह पूरे दक्षिण भारत के इतिहास का स्वर्ण युग था। इसी दौर में पुरंदरदास, कनकदास, सर्वज्ञ तथा भक्ति आंदोलन से जुड़ी अन्य विभूतियां सक्रिय रहीं। वर्ष 1565 में तलीकोटे के युध्द में विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद मैसूर वाडेयार राजघराने के आठवें शासक राजा वाडेयार ने मैसूर का प्रशासनिक ढांचा बदला। अब यह एक अधीनस्थ प्रान्त न रहकर स्वतंत्र राज्य बन गया। श्रीरंगपटना के प्रशासक श्रीरंगराय की महत्वाकांक्षा कुछ समय के लिए राजा वाडेयार के लिए चुनौती बनी रही लेकिन वर्ष 1610 में उन्होंने श्रीरंगपटना पर भी अपना नियंत्रण बना लिया। यहीं से उन्हें सोने का वह सिंहासन प्राप्त हुआ जो कथित तौर पर विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहर को उनके गुरु विद्यारण्य द्वारा दिया गया था। राजा वाडेयार 23 मार्च 1610 को इस सिंहासन पर आसीन हुए और उन्होंने 'कर्नाटक रत्न सिंहासनाधीश्वर' की उपाधि हासिल की। उन्होंने अपनी राजधानी श्रीरंगपटना को बना लिया और विजयनगर के दशहरा महोत्सव की परंपरा को भी जीवित रखा। इस उत्सव को मनाने के लिए एक स्पष्ट निर्देशिका भी तैयार कीगई। उनकी इच्छा थी कि उनकी आनेवाली पीढ़ियां भी इस उत्सव का स्वरूप उसी प्रकार बनाए रखें जिस स्वरूप में यह विजयनगर शासकों द्वारा मनाया जाता था। इस उत्सव का महत्व इस बात से समझा जा सकता है कि राजा वाडेयार ने अपने निर्देशों में कहा है कि अगर राजघराने के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाए, तो भी दशहरा उत्सव की परंपरा कायम रखी जानी चाहिए। अपने इस निर्देश पर  वह खुद भी कायम रहे। 7 सितम्बर, 1610 में अपने पुत्र नंजा राजा की मृत्यु के ठीक एक दिन बाद ही उन्होंने दशहरा उत्सव का उद्धाटन किया था। यानी इस उत्सव में वे कोई अवरोध नहीं चाहते थे।

राजा वाडेयार की इस परंपरा को उनके बाद वाडेयार राजघराने के वंशजों ने भी जीवित रखने की कोशिश की है। इस परंपरा को वर्ष 1805 में तत्कालीन वाडेयार शासक मुम्मदि कृष्णराज ने नया मोड़ दिया। उन्हें टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद अंग्रेजों की मदद से राजगद्दी मिली थी इसलिए दशहरे के दौरान अंग्रेजों के लिए उन्होंने विशेष 'दरबार' लगाने की परंपरा शुरू की। इसके साथ ही दशहरा उत्सव वाडेयार राजघराने की बजाय आम जनता का उत्सव बन गया। इस उत्सव को दोबारा राजघराने से जोड़ने की कोशिश कृष्णराज वाडेयार चतुर्थ ने की। उन्होंने शानदार मैसूर राजमहल के निर्माण के बाद दशहरे को दोबारा राजघराने से जोड़ा लेकिन आम जनता इससे दूर नहीं हुई। आज भी मैसूर महल को दशहरे के उत्सव से अलग कर नहीं देखा जा सकता है।

वाडेयार राजाओं के दशहरा उत्सवों से आज के उत्सवों का चेहरा काफी अलग हो चुका है। अब यह एक अन्तरराष्ट्रीय उत्सव बन गया है। इस उत्सव में शामिल होने के लिए देश और दुनिया के विभिन्न हिस्सों से मैसूर पहुंचने वाले पर्यटक दशहरा गतिविधियों की विविधताओं को देख दंग रह जाते हैं। तेज रोशनी में नहाया मैसूर महल, फूलों और पत्तियों से सजे चढ़ावे, सांस्कृतिक कार्यक्रम, खेल-कूद, गोम्बे हब्बा और विदेशी मेहमानों से लेकर जम्बो सवारी तक हर बात उन्हें खास तौर पर आकर्षित करती है। हालांकि बदलते समय के साथ भारत के धार्मिक अनुष्ठानों से प्रमुख कारक के रूप में धर्म की बातें दूर होती जा रही हैं लेकिन सजग पर्यटक चाहे तो दशहरा उत्सव में धर्म का अंश घरेलू आयोजनों में आज भी देख सकता है।

उल्लेखनीय है कि चार शताब्दी से लगातार चले आ रहे दशहरा उत्सव में सिर्फ एक वर्ष की रुकावट आईथी। वर्ष 1970 में जब भारत के राष्ट्रपति ने छोटी-छोटी रियासतों के शासकों की मान्यता समाप्त कर दी तो उस वर्ष दशहरे का उत्सव भी नहीं मनाया जा सका था। उस समय न तो मैसूर राजमहल की चकाचौंध देखी जा सकी और न ही लोगों का उत्साह कहीं दिखाई दिया। बहरहाल, इसे दोबारा शुरू करने के लिए वर्ष 1971 में कर्नाटक सरकार ने एक कमेटी गठित की और इसकी सिफारिशों के आधार पर दशहरा को राज्य उत्सव के रूप में दोबारा मनाया जाने लगा। इसके साथ ही राज्य की पर्यटन आय बढ़ाने के लिए भी दशहरा उत्सव को मुख्य भूमिका दी गई। वर्ष 2004 में मैसूर राजघराने के निजी दशहरा उत्सव की झलकियां आम जनता को दिखाने के लिए इंटरनेट के माध्यम से वेबकास्ट भी शुरू किया गया। मैसूर राजवंश के अंतिम उत्तराधिकारी श्रीकांतदत्त नरसिंहराज वाडेयार की कोशिशों से शुरू किए गए इस वेबकास्ट को www.royalsplendourofmysore.com पर देखा जा सकता है। इस वेबसाइट पर वाडेयार राजवंश द्वारा पुराने समय में पूजा-अर्चना के लिए काम में लाए जाने वाले देवी-देवताओं के चित्र भी देखे जा सकते हैं। हालांकि राजमहल परिसर में राजघराने के सदस्यों द्वारा विशेष रूप से मनाए जाने वाले उत्सव में आम जनता को शामिल नहीं किया जाता है लेकिन इस वेबसाइट पर राजघराने द्वारा अपनाई जाने वाली पूजा की विधियों और विभिन्न रस्मों को भी देखा जा सकता है।

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राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा है हिन्दी


'राष्ट्र भाषा हिन्दी, जिसे सरकारी भाषा में राजभाषा कहा जाता है, विभिन्न भाषा-भाषियों वाले भारत को एक सूत्र में पिरोने का काम करती है । उत्तर से दक्षिण, पूर्व से पश्चिम तक संपर्क भाषा की अगर कोई भूमिका निभाती है तो वह हिन्दी हैक्योंकि हिन्दी ही ऐसी भाषा है जिसे अहिन्दीभाषी भी टूटी-फूटी तो बोल ही लेता है और कम-ज्यादा समझ भी लेता है। अंग्रेजी उत्तर भारत में कम पढ़े लिखे लोगों को समझ में नहीं आ सकती इसलिए संपर्क की भाषा अंग्रेजी नहीं, हिन्दी ही है। हिन्दी एक ऐसी भाषा है जिसकी प्रतिस्पर्धा किसी भाषा से नहीं है बल्कि वह भारत की विविध भाषाओं को साथ लेकर चलने की क्षमता रखती है। वह राष्ट्र की विविध क्षेत्रीय भाषाओं के साथ खुद का विकास करने में सक्षम है। वह अन्य भाषाओं की बड़ी बहन है, उनकी सौतन नहीं है। यह तो वोट की राजनीति के चलते नेतागण भाषा की दीवार खड़ी करने का काम करते हैं अन्यथा आम जनता के मन में हिन्दी के प्रति किसी प्रकार का विद्वेष नहीं है।' यह विचार व्यक्त किए 'दक्षिण भारत' हिन्दी दैनिक के संपादक श्रीकांत पाराशर ने। वे यहां सरकारी उपक्रम इंजीनियरिंग प्रोजेक्ट्स इंडिया (ईपीआई) द्वारा आयोजित हिन्दी दिवस के अवसर पर मुख्य अतिथि के रूप में बोल रहे थे।

श्री पाराशर ने कहा कि हिन्दी का बड़ा नुकसान उन लोगों ने किया है जो इसे जटिल बनाए रखने के पक्षधर हैं और अपनी विद्वता का सिक्का जमाए रखने के लिए इसे आम आदमी की पसंदीदा जुबान बनने देने में बाधक बन रहे हैं। हिन्दी जितनी सरल होगी, बोलचाल की भाषा होगी उतनी ही ज्यादा गैर हिन्दीभाषियों द्वारा अपनाई जाएगी। भाषा कभी भी किसी को जबरन नहीं सिखाई जा सकती। हिन्दी के प्रति जैसे जैसे लगाव बढ़ेगा, प्रेम बढ़ेगा, भाषा भी बढ़ेगी, ज्यादा प्रचलित होगी।

मुख्य अतिथि पाराशर ने कहा कि आज तो हिन्दी बाजार की भाषा हो रही है इसलिए विदेशी कंपनियां भी अपने उत्पाद बेचने के लिए हिन्दी का सहारा लेती हैं। यह स्वाभाविक है। जब किसी को आर्थिक लाभ होगा तो भाषा से वह मुंह नहीं मोड़ना चाहेगा। हिन्दी अगर रोजगार उपलब्ध कराएगी, हिन्दी अगर रोजी-रोटी का  साधन बनेगी तो वह जन जन की भाषा बनने लगेगी। लोगों ने उसे माथे की बिन्दी कह कह कर अहम की लड़ाई के लिए एक कारण बना दिया और उसे दिलों में नहीं बैठने दिया। माथे की बिन्दी कह देने भर से उसे उच्च स्थान नहीं मिल जाता। उसे वह स्थान दिलाने के लिए हम कितने ईमानदार प्रयास करते हैं? पाराशर ने कहा कि हिन्दी भाषा के प्रति खुद हिन्दीभाषियों को ही गर्व नहीं होता बल्कि  वे अंग्रेजी बोलकर  प्रसन्न होते हैं तो दूसरों को दोष क्यों दिया जाए?

उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि जब कोई हिन्दी भाषा का चैनल, हिन्दीभाषी प्रदेश में, किसी हिन्दीभाषी से हिन्दी में कोई सवाल करता है, तो वहां का व्यक्ति हिन्दी में किए गए सवाल का जवाब अंग्रेजी में गर्व से देता है। मजे की बात यह है कि वह गलत अंग्रेजी में जवाब देता है, और वह भी अटक अटक कर बोलता है परन्तु बोलता अंग्रेजी में है क्योंकि हिन्दी में उसे शर्म आती है। जब हिन्दीभाषियों की मानसिकता ऐसी है तो फिर जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है उन्हें किस बात का दोष दिया जाए? दक्षिण भारत में तो हिन्दी भाषा के अनेकानेक मूर्धन्य विद्वान हुए हैं। उन्होंने कहा, हिन्दी को कामकाज में, बोलचाल में अपनाएं मगर प्यार से, स्वेच्छा से। आंदोलन,  प्रदर्शन,   मे,,मोरेन्डम  या  अधिसूचना से किसी को हिन्दी नहीं सिखाई जा  सकती। इसका विकास व्यक्तिगत स्तर पर करना होगा। हम अपने अपने स्तर पर इसके लिए प्रयास करें। एक एक व्यक्ति का योगदान जुड़ेगा तो उसका परिणाम निश्चय ही सुखद आएगा।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कवि एवं पेशे से वैज्ञानिक डॉ. आदित्य शुक्ल ने की। उन्होंने एक कविता के माध्यम से भारत की विविध भाषाओं के साथ हिन्दी का कैसा अटूट संबंध है तथा कैसे यह भाषा दूसरी भाषाओं के साथ विकसित होती है, इस भावना को व्यक्त किया।

इस अवसर पर ईपीआई के उप महाप्रबंधक के मनोहरन, एन विभाकरन भी मौजूद थे। मुख्य अतिथि श्री पाराशर, डॉ. शुक्ल ने हिन्दी भाषा संबंधी प्रतिस्पर्धाओं के विजेताओं को नकद पुरस्कार एवं स्मृति चिन्ह भेंट किए। हिन्दी दिवस के आयोजन का पूरा श्रेय संस्थान के वरिष्ठ वित्तीय प्रबंधक हरिकृष्ण सक्सेना को जाता है जिनके प्रयासों से हर वर्ष हिन्दी दिवस मनाया जाता है।

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-- 'कविता रंग लाएगी' का विमोचन --



बेंगलूर में 'साहित्य परिवार' नामक संस्था के अंतर्गत साहित्यिक गतिविधियां होती रहती हैं। गत रविवार को हरिकृष्ण सक्सेना 'परेशान' की काव्य कृति 'कविता रंग लाएगी' का विमोचन नयना सभागार में हुआ। आगरा से आए मनोवैज्ञानिक एवं शिक्षाविद डॉ महेश भार्गव 'विभोर' मुख्य अतिथि थे और कार्यक्रम की अध्यक्षता उभयगान विदूषी, प्रख्यात शास्त्रीय गायिका श्रीमती श्यामला भावे ने की। उनका अभिनंदन हिन्दी दैनिक 'दक्षिण भारत' के संपादक श्रीकांत पाराशर ने किया। डॉ महेश भार्गव का अभिनंदन बेंगलूर के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ पी सी मानव तथा केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो के संयुक्त निदेशक श्रीनारायण सिंह समीर ने किया। आगरा विश्वविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ सुषमा सिंह ने पुस्तक की समीक्षा की। विमोचन अवसर पर काव्यगोष्ठी का भी आयोजन किया गया, जिसका संचालन डॉ आदित्य शुक्ल ने किया। काव्यगोष्ठी में आगरा के सुशील सरित, अशोक अश्रु एवं श्रीमती रमा वर्मा सहित बेंगलूर के अनेक कवियों ने रचना पाठ किया। यहां प्रकाशित चित्रों में, अतिथिगण पुस्तक का विमोचन करते हुए तथा श्यामला भावे का सम्मान करते हुए 'दक्षिण भारत' के संपादक दर्शित हैं।
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हौदा उठाने वाले बूढ़े हाथी

कर्नाटक की संस्कारधानी मैसूर में मनाया जाने वाला दशहरा महोत्सव विश्व विख्यात है। इस महोत्सव में शामिल होने के लिए देश-विदेश से लाखों पर्यटक आते हैं। इस महोत्सव के दौरान निकाली जाने वाली 'जम्बो सवारी' का बड़ा महत्त्व होता है। इस सवारी में कई हाथी एक साथ एक शोभायात्रा के रुप में चलते हैं और इनका नेतृत्व करने वाले हाथी की पीठ पर चामुंडेश्वरी देवी की प्रतिमा सहित 750 किलोग्राम सोने से बना 'स्वर्ण हौदा' रखा होता है। इसे देखने के लिए विजयादशमी के दिन शोभा यात्रा के मार्ग के दोनों तरफ लाखों लोगों की भीड़ जमा होती है। इस भीड़ का शोर हजारों हाथियों की चिंघाड़ के बराबर होता है। इसी दौरान पारंपरिक रूप से तोपों की सलामी भी दी जाती है। इन सबके बीच इन मूक पशुओं को लेकर चलना काफी दुष्कर कार्य है क्योंकि यदि एक भी हाथी बिचक गया तो तबाही की कल्पना करना मुश्किल है। लेकिन वन अधिकारी इन हाथियों की शारीरिक क्षमता के साथ इनकी भावनात्मक, बौध्दिक क्षमता भी परखते हैं और इनकी शोर करने एवं शोर सहने की क्षमता का आकलन भी किया जाता है। पशु चिकित्सक तनावपूर्ण स्थितियों में इनके धैर्य का परीक्षण, इनकी जादुई शक्ति और हौदा रखने की योग्यता भी मापते हैं। इसके बाद ही इन्हें इस सवारी में शामिल किया जाता है। अब अधिकारियों के सामने इन हाथियों की बढ़ती उम्र समस्या बनती जा रही है। जम्बो सवारी के कई हाथी उम्र दराज हो गए हैं और अब उनकी जगह नए हाथियों की खोज जारी है। 'स्वर्ण होदा' लेकर चलने वाले हाथी बलराम की उम्र 50 वर्ष हो चुकी है और उसके साथी श्रीराम 51, मैरीपर, कांती 68, रेवती 54 और सरला 64 वर्ष के हैं। उनके स्थान पर नए हाथियों की खोज काफी मुश्किल हो रही है क्योंकि जंगल की आबो हवा से परिचित हाथियों को 'शहरी जंगल' के वातावरण से परिचित कराना मुश्किल काम है। इस बीच अधिकारियों ने 'अर्जुन' नामक हाथी की तलाश की है जो हौदा लेकर चलने में सक्षम है। उसकी उम्र भी 48 वर्ष है लेकिन उसका एक बुरा इतिहास इस काम में आड़े आ रहा है। उसने पूर्व में अपने महावत को मौत के घाट उतार दिया था। उसे जम्बो सवारी में चलने का अनुभव भी है। हालांकि बलराम को इस सवारी में 14 वर्ष का अनुभव है और उसकी कद-काठी भी सक्षम है लेकिन अर्जुन के बारे में अधिक विचार किया जा रहा है। वैसे अधिकारियों के पास 42 वर्षीय अभिमन्यु जिसकी ऊँचाई 2.68 मीटर है और सबसे बड़े राजेन्द्र जिसकी ऊँचाई 2.84 मीटर है, का भी विकल्प मैजूद है लेकिन उसकी उम्र 53 वर्ष हो चुकी है ऐसे में उस पर यह भार डाल संभव नहीं दिखता है।
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जहां गणेशजी को मांसाहारी भोग चढ़ाते हैं


कर्नाटक के कोप्पल कस्बे के निकट भाग्यनगर गांव के लोग एक अनोखी परंपरा का पालन करते आ रहे हैं। यहां गणेशात्सव के मौके पर भगवान गणेश को मांसाहारी व्यंजनों का भोग लगाया जाता है। अंडे, मटन, मछली से बने व्यंजनों के साथ-साथ नेवेद्य में बाकायदा शराब की बोतल भी रखी जाती है।
भाग्यनगर गांव के सुभाष कृष्णाशा कटवा के घर पर जो प्रतिमा रखी गई है उसके सामने एक बड़ी थाली में ये व्यंजन रखे गए हैं और साथ में शराब की बोतल। सुभाष कटवा बताते हैं कि उनके पूर्वजों के समय से यह प्रथा चली आ रहीहै। गौरतलब है कि मूलत: मराठी पट्टेगार (क्षत्रिय जाति की एक उपजाति) जाति के कुछ पंथों में यह प्रथा प्रचलन में है। इतना ही नहीं, इनमें अलग-अलग गोत्र के परिवार अलग-अलग रंगों वाली गणेश प्रतिमाएं ही गणेशोत्सव के समय अपने घर में प्रतिष्ठापित करते हैं जैसे मेघरा, पवार तथा भविकट्टी गौत्र वाले परिवार लाल रंग की प्रतिमा जबकि कटवा गौत्र वाले परिवार सफेद रंग की प्रतिमा की पूजा करते हैं।
फोटो सौजन्य : डेक्कन हेराल्ड
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लेखक-पत्रकार के लिए निःशुल्क हार्ट ऑपरेशन

मैं यह जानता हूं कि आज भी लेखकों, कवियों, पत्रकारों (कुछ बड़े संस्थानों से जुड़े लोगों को छोड़कर) की बिरादरी ऐसी है कि अगर अचानक किसी को हार्ट की बाईपास सर्जरी करानी पड़ जाए तो मुश्किल हो जाए। कम से कम डेढ़ लाख से लेकर ढाई लाख रुपए तक के पैकेज होते हैं अच्छे अस्पतालों में। पत्रकारों को अगर ठीक-ठाक वेतन मिलता है तो भी इतनी सेविंग्स उनके पास नहीं होती है कि अचानक आए ऐसे खर्चे को सहज ही वहन कर सकें। यहां मैं यह बताना चाहता हूं कि हमारे यहां बेंगलूर में कुछ ट्रस्ट एवं उदार दानदाता हैं जिनके सौजन्य से हार्ट ऑपरेशन करवाए जाते हैं और कोई शुल्क नहीं लिया जाता।
पत्रकारिता के साथ साथ प्रारंभ से ही मेरा लगाव समाजसेवा से रहा है इसलिए ऐसे सेवाभावी संगठनों और लोगों से भी मेरे धनिष्ठ संबंध हैं। मेरी यह कोशिश है कि देशभर में अगर कहीं भी, कोई भी पत्रकार या लेखक हृदय रोग से ग्रस्त है तथा आर्थिक अभावों के चलते बाईपास सर्जरी (हार्ट ऑपरेशन) नहीं करवा पा रहा है तो ऐसे भाई-बहन को मुझसे संपर्क करने के लिए कहा जा सकता है। ब्लॉग पर जिनसे परिचय हुआ है, मित्रता हुई है वे ऐसे जरूरतमंद पत्रकार, लेखक की अनुशंसा कर सकते हैं क्योंकि मदद उसी को मिलनी चाहिए जिसको वास्तव में जरूरत है। हालांकि जो आर्थिक रूप से समर्थ हैं, वे संपर्क भी नहीं करेंगे। यह बिरादरी ज्यादा स्वाभिमानी होती है इसलिए कष्ट पाते हुए भी सहज ही सहयोग नहीं लेती। फिर भी व्यवस्था का दुरुपयोग न हो इसलिए परिचित के माध्यम से आवेदन आए तो उचित रहता है। अतः ऐसे किसी भी पत्रकार-लेखक बंधु को हम जानते हों, जिनका हार्ट ऑपरेशन जल्दी होना जरूरी है तो मुझे उनकी जानकारी (पूरा विवरण) भिजवाएं। मैं बेंगलूर में उनके निःशुल्क ऑपरेशन कराने की व्यवस्था करूंगा। मेरा इसमें कोई खास योगदान नहीं है, बस एक सेतु का कार्य करने की कोशिश है।

यहां पर बहुत अच्छे कुछ लोग हैं, जिनके सौजन्य से यह अद्भुत सेवा हो रही है। बेंगलूर के जाने-माने अस्पताल नारायण हृदयालय के साथ इनका अनुबंध है। यह वही अस्पताल है जहां पाकिस्तान के बच्चों के हार्ट ऑपरेशन हुए थे और मीडिया में कई दिनों तक उनका जिक्र हुआ था। इसी प्रकार दूसरा अस्पताल 'जयदेवा इंस्टिट्यूट ऑफ कॉर्डियोलॉजी' भी प्रतिष्ठित अस्पताल है। दोनों अस्पताल देशभर में ख्यति प्राप्त हैं। इन अस्पतालों में ऑपरेशन होता है। कर्नाटक की सरकार तथा यहां के राज्यपाल तो इस सेवा से अभिभूत हैं।महीने में एक-दो रोगियों के लिए विशेष आग्रह मेरी तरफ से मैं कर सकता हूं, इसलिए मैंने सोचा कि ब्लॉग के साथियों के माध्यम से ऐसे वास्तविक जरूरतमंद लेखकाें-पत्रकारों की मदद की जाए जिनके लिए स्वयं के बलबूते पर हॉर्ट ऑपरेशन कराना मुश्किल है। बस, यही सोचकर ब्लॉग पर यह मैटर डाला है।
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अपनी दोनों आंखें चढ़ा दीं भगवान को

इसे अंधविश्वास कहा जाए या आस्था की पराकाष्ठा, परन्तु है यह सच्ची घटना। कर्नाटक के बागलकोट जिले के अडगल गांव के एक किसान मुदुकप्पा इलप्पा कर्दी नामक व्यक्ति ने गत 28 अगस्त को अपने ही चाकू से अपनी दायीं आंख निकाल कर भगवान शिव की मूर्ति के चरणों में रख दी। उस दिन वहां गांव में स्थित शंकरनारायण स्वामी मठ में यह भक्त आया और वहां उपस्थित लोग कुछ समझ पाते इससे पहले ही उसने चाकू निकाला तथा तुरन्त अपनी दायीं आंख निकालकर मूर्ति को समर्पित कर दी। उसे तुरंत अस्तपाल ले जाया गया परन्तु देर हो चुकी थी। वह एक आंख खो चुका था।अभी गत दो सितम्बर को 41 वर्षीय यही शिव भक्त मुदुकप्पा फिर मंदिर में गया और उसने अपनी दूसरी आंख (बायीं) भी उसी अंदाज में भगवान को चढ़ा दी। कुरूबा जाति के इस छोटे से किसान के 8 संतानें हैं और वह मुश्किल से परिवार का पेट पालता है। अब वह पूरी तरह नेत्रहीन हो गयाहै। उसकी नेत्र ज्योति आने की कोई संभावना नहीं है। उसकी पत्नी ने भी इसे भगवान शिव का आदेश बताते हुए इसका समर्थन किया है। आज हमारे देश में ऐसी कितनी ही घटनाएं होती होंगी, जिनमें से इक्का-दुक्का प्रकाश में आती हैं। इसे जागरूकता या शिक्षा की कमी कहा जाए या कुछ और समझ में नहीं आता। परन्तु ऐसा होता है। थमने का नाम नहीं लेती ऐसी घटनाएं।
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बहती गंगा (कोसी) में हाथ धो लेते हैं अखबार भी

बिहार में आई बाढ़ पर राजनेता तो राजनीति करेंगे ही, यह उनके स्वभाव में है परन्तु छोटे-बड़े अखबार भी इस मौके का लाभ उठाने से नहीं चूकने वाले। मैंने तो यहां तक देखा है कि अखबार वाले दूसरों को ईमानदारी, नैतिकता, सच्चाई और न जाने कैसी कैसी अच्छी सीख देते दिखाई देते हैं परन्तु उनमें से भी बहुत से अखबार बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं। जब ऐसी कोई आपदा आती है तब कुछ अखबार प्रारंभ में एक छोटी-सी राशि 50 हजार से 5 लाख रुपए (अखबार की सामर्थ्य और स्टैन्डर्ड के अनुसार) तक का अपनी ओर से योगदान घोषित कर एक फंड बना देते हैं। यह फंड उस विशेष त्रासदी से पीड़ितों की मदद के लिए होता है। पाठकों में भी कोई हजारपति होता है तो कोई करोड़पति। अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोग (पाठक) आर्थिक सहयोग देना शुरू करते हैं। सिलसिला शुरू होता है तो थमता नहीं। परन्तु कुछ अच्छी नीयत वाले अखबार तो सेवा का काम भी करते हैं और सलीके से करते हैं। उनकी नीयत ठीक होती है इसलिए जरूरतमंदों तक अपेक्षित सहयोग पहुंच जाता है। कुछ ऐसे होते हैं जो संग्रह तो ज्यादा करते हैं और जल्दी करते हैं मगर उस राशि का वितरण धीरे-धीरे और थोड़ा थोड़ा करते हैं। इससे होता यह है कि काफी राशि उनके ट्रस्ट या खाते में इकट्ठी हो जाती है और पड़ी रहती है। त्रासदी कोई भी हो, थोड़े दिनों बाद उसका ज्वार उतरने लगता है, सहानुभूति का स्तर कम होने लगता है, जन-जीवन सामान्य होने लगता है। बात आई-गई हो जाती है। अखबारों द्वारा संचालित कथित ट्रस्टों और विशेष कोषों में अवितरित धन पड़ा रह जाता है, जिसे बाद में अन्य मदों में ठिकाने लगाया जाता है। आजकल आयकर विभाग ट्रस्टों पर खास नजर रखने लगा है इसलिए एक निश्चित अवधि में धन तो खर्च करना ही होता है परन्तु ट्रस्ट किस मद में, किसकी सहायता के लिए, कितनी राशि खर्च करता है, उस पर कोई ज्यादा सख्त दिशा निर्देश या पाबंदियां नहीं हैं। जब कारगिल युध्द हुआ था उस समय तो न जाने कितने ही अखबार वाले उसमें तर गए थे। कोई बड़ा धूर्त था तो उसने बड़ा हाथ मारा और किसी की पोटी (सामर्थ्य) ज्यादा नहीं थी तो उसने कम में संतोष किया परन्तु ऐसा बहुत से अखबारों ने किया। जल्दी जल्दी दान एकत्र किया, धीरे धीरे बांटा और कुछ समय बाद में चुप बैठ गए। ऐसे एक बड़ा हिस्सा बचा लिया। छोटे बड़े न जाने कितने अखबारों ने ऐसा किया। अखबार होने का फायदा यह है कि उसे वाहवाही भी मिलती है कि उसने अपनी ओर से कुछ राशि देकर पहल की, प्रचार भी खूब मिलता है तथा व्यवस्था में लूप हॉल्स का फायदा भी वे लोग उठा लेते हैं, जिन्हें उठाना आता है।ऐसा नहीं है कि हर बड़ा अखबार ईमानदार और हर छोटा अखबार बेईमान होता है। ना ही हर बड़ा अखबार बदनीयती से धन संग्रह करता हैऔर ना ही हर छोटा अखबार दूध का धुला होता है। अच्छे और खराब में बड़े और छोटे का कोई मापदंड नहीं है। यह सब कुछ नीयत पर निर्भर करता है, संस्कारों पर निर्भर करता है। जो ईमानदार होते हैं वे पूर्ण ईमानदार होते हैं। जो सेवा करना चाहते हैं वे अपने स्तर पर किसी भी तरह से कर सकते हैं। जिन्हें मौके का फायदा उठाना है वह चाहे अखबार ही क्यों न हो, उठा लेता है। गरीब आदमी ईमानदारी से काम करें तो उस पर भी शक होता है और बड़ा धनी व्यक्त बड़ा घपला करे तब भी यों लगता है कि उसे ऐसा करने की क्या जरूरत है। उस पर शक नहीं होता। मदद मरने वाले भी क्या करें? अखबार सबसे सरल माध्यम दिखता है। उसमें नाम भी छपता है। बहरहाल, मैं यह सोचता हूं कि आपदा में फंसे लोगों की सहायता करनी चाहिए। परन्तु इसके लिए सही माध्यम चुनना चाहिए। अच्छे कार्यकार्यकर्ताओं वाली प्रतिष्ठित संस्था के माध्यम से अपना अर्थ सहयोग पहुंचाना चाहिए। अगर कोई अपनी टीम बनाकर खुद प्रभावित क्षेत्रों में जाए तो उसका कोई मुकाबला नहीं।
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बेबस और बेहाल है बिहार

बिहार में जो बाढ आई है, उसकी भयावहता का तो ठीक से वर्णन भी नहीं किया जा सकता। पहले से ही आर्थिक रुप से पिछड़े हुए इस प्रदेश को कोसी नदी ने बर्बादी के कगार पर ला खड़ा किया है। प्रदेश के अनेक जिलों में त्राहि-त्राहि मची हुई है। बताया जा रहा है कि 25 लाख लोग अभी भी बाढ में फंसे हुए हैं। कई-कई दिनों से लोग अपने नन्हें बच्चों को गोद में उठाए, पानी की उफनती धाराओं के बीच किसी पेड़ को पकड़े खड़े हैं। कहीं छतों पर एक साथ सैकड़ों लोग ठसमठस बैठे हुए आसमान की ओर टकटकी लगाए हुए हैं कि कब कोई हेलिकॉप्टर उनकी मदद के लिए भगवान बनकर आएगा। कहीं हेलिकॉप्टर से खाने-पीने की सामग्री फेंकी भी जा रही है तो उसमें से आधी सामग्री पानी में गिर कर बर्बाद हो रही है और जो आधी-अधूरी सामग्री भूखी-प्यासी जनता के बीच पहुंच रही है उस पर लोग इस तरह टूट रहे हैं जैसे उन्होंने कभी कुछ खाया ही न हो। कई इलाकों में तो छोटे-छोटे बच्चों के मुंह में 5-7 दिनों से अन्न का एक दाना भी नहीं गया है। जो लोग इस बाढ से घिरे हैं उनकी दयनीय स्थिति के बारे में कितना कुछ भी लिख दो, कम है। टीवी चैनलों पर वहां के जीवंत हालात देखकर और अखबारों में समाचार पढकर, किसी का पत्थर दिल हो तो वह भी पिघल जाए, इतने चिंताजनक एवं मार्मिक हालात बिहार के कई जिलों के हैं।
केन्द्र सरकार ने बिहार के बाढ पीड़ितों की मदद के लिए एक हजार करोड़ रुपए देने की घोषणा की। राज्य सरकार भी अपने स्तर पर सब कुछ करने की कोशिश में दिखाई देती है। हम किसी की भी मंशा पर आशंका नहीं करते परन्तु इसमें कोई दो राय नहीं कि जब आग लगती है तब हम कुआं खोदना शुरु करते हैं। हम भारतीयों की यह प्रवृत्ति जब तक नहीं बदलेगी तब तक हालात भी नहीं बदलेंगे। चाहे बाढ हो या सूखा, केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, स्थिति से निपटने के न तो पूर्व इंतजाम किए जाते हैं और न ही भविष्य के लिए ठोस समाधान ढूंढने की कोशिश होती है। प्राकृतिक आपदा में क्या किया जा सकता है, इतना कह कर हर प्रशासन पल्ला झाड़ लेता है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी ने वर्षों तक राज्य पर शासन किया। आज वे सत्ता से बाहर हैं तो हेलिकॉप्टर से बाढग्र्रस्त इलाकों का मुआयना कर नीतीश कुमार को भला-बुरा कह रहे हैं, उन्हें नाकारा साबित करने पर तुले हैं परन्तु उन्होंने खुद ने अपने शासनकाल में बिहार और बिहारवासियों को क्या दिया? इसलिए यह समय राजनीति करने का नहीं है फिर भी सत्ता के भूखे लोग अपनी आदतों से बाज नहीं आते।
कोसी नदी में पहली बार बाढ नहीं आई है। हर साल वहां बाढ़ के हालात बनते हैं। परन्तु यह बात सही है कि इस बार बिहार नेपाल सीमा पर भीमनगर तटबंध में लगभग तीन किमी की दरार पड़ गई जिससे कोसी नदी ने अपना रास्ता बदल लिया। तीन सौ साल पहले जिस रास्ते यह नदी बहती थी, वह रास्ता उसने पकड़ लिया और बिहार में तबाही मच गई। कोसी नदी के तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग लगभग हर वर्ष बाढ के हालात से जूझते हैं क्योंकि नेपाल की ओर से अतिरिक्त पानी छोड़ा जाता हैऔर वह कोसी नदी में बाढ लेकर आता है। केन्द्र सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं है परन्तु लगता नहीं कि इस आपदा से निपटने के लिए उसने खास परवाह की हो तथा नेपाल से गहन चर्चा कर कुछ समाधान ढूंढने का ईमानदार प्रयास किया हो। कोसी नदी में जल स्तर बढता रहा, बाढ का पानी कहर ढाता रहा और शुरु के दो दिन तक तो केन्द्र और स्थानीय प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। बाद में प्रयास प्रारंभ हुए परन्तु तब तक स्थिति बिगड़ चुकी थी, इसलिए ये प्रयास भी नाकाफी सिध्द हुए। अब सेना ने कमान संभाली है, केन्द्र भी जागा है तथा राज्य सरकार सीमित साधनों के बल पर इस विकट संकट से जूझने की कोशिश कर रही है। समय केवल प्रशासन की खामियां ढूंढने का भी नहीं है क्योंकि इससे बाढ में फंसे लोगों की कोई मदद नहीं होगी बल्कि अब सभी की कोशिश यह होनी चाहिए कि बाढ प्रभावितों की मदद कैसे की जाए।
देशभर में लाखों बिहारी हैं जो बिहार से बाहर बसे हैं और रोजी-रोटी कमा रहे हैं। उनमें से हजारों लोग ऐसे हैं, जो समध्द हैं। बहुत से लोगों का अच्छा व्यवसाय है तो अनेक मल्टी नेशनल कंपनियों में ऊंचे ओहदों पर हैं। बहुत से लोग सरकारी-अर्ध सरकारी संस्थानों में उच्च पदों पर कार्यरत हैं जिन्हें काफी सम्मानजनक वेतन मिलता है। इन सब बिहारी बंधुओं को चाहिए कि खुले हाथ से अपने भाइयों की मदद के लिए आर्थिक सहयोग दें। दूसरी बात, बिहार कोई भारत से बाहर नहीं है। वह भी भारत का ही एक प्रदेश है। हमारे लोग तो संकट काल में दूसरे देश के लोगों की मदद करने में पीछे नहीं रहते फिर हमारे ही देश के लाखों लोग बाढ की चपेट में हैं तो उनकी मदद करने में भला पीछे क्यों रहना चाहिए? इसलिए मदद केवल बिहारी ही करें ऐसा नहीं हर समृध्द भारतवासी को आगे आना होगा। बाढ का पानी तो दो-तीन दिन में या सप्ताह भर में उतर जाएगा परन्तु असली कठिनाई तभी शुरु होगी। जो लोग पानी में बह गए, वे तो बह गए जो जिंदा बचे हैं उनके लिए शिविर लगाकर उनके भोजन-पानी, दवाइयां, पहनने-ओढने के कपड़े आदि की व्यवस्था करनी होगी। यह काम व्यापक स्तर पर किया जाना है। सरकारी-गैर-सरकारी संगठन इसमें जुटेंगे परन्तु जहां लाखों लोग बेघर हो गए हों, वहां कितना भी राहत कार्य हो, कम ही होगा। इसलिए होना यह चाहिए कि अलग-अलग प्रदेशों से बाकायदा कार्यकर्ताओं की टीमें प्रभावित इलाकों में जाएं। वहां के वास्तविक सेवाकार्य करने वाले स्वयंसेवी संगठनों का सहयोग लेते हुए उनके साथ खुद मिलकर बाढ पीड़ितों की जरुरतों के मुताबिक विधिवत ढंग से राहत कार्य करें तो काफी अच्छा काम हो सकता है। आर्थिक सहयोग देने वाले बहुत मिल जाएंगे परन्तु वे अपना अंशदान तभी देंगे जब उन्हें लगेगा कि उनकी राशि का लाभ वास्तविक प्रभावितों को अवश्य मिलेगा। बाढ का पानी उतरने के बाद असली राहत की जरुरत होगी। संगठनों को चाहिए कि मिलजुलकर एक कार्ययोजना बनाएं और उसी के अनुरुप काम करें तथा इस बात का भी ध्यान रखें कि एकत्र की जाने वाली राशि का दुरुपयोग न हो। अगर निर्णय लेने में ही पखवाड़ा बीत गया तो उससे भी ध्येय सफल नहीं होगा। काम करना है तो कमर तत्काल कसनी चाहिए। बिहार की भीषण बाढ में फंसे हैं वे हमारे ही भाई-बहन हैं, यह सोचकर जो भी, जिस तरह से भी मदद कर सकता है, उसे उसी रुप में आगे आना चाहिए।
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