नेताओं पर लगे लगाम

राजनीति का छिछोरापन बढ़ता जा रहा है। जो सत्ता पर काबिज हैं वे अपनी कुर्सी बचाने के लिए और जिन्हें यह कुर्सी पानी है वे इसे हथियाने के लिए किसी भी हद तक नीचे गिरने को तैयार हैं। देश की सूचना प्रोद्योगिकी राजधानी बेंगलूर तथा विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ रहे अहमदाबाद में आतंकवादी अपने मंसूबों में कामयाब हो गए पर हमारे राजनेताओं ने इससे कोई सबक नहीं सीखा । जिस बात का डर था, उसी को हवा दी जा रही है। लग ही रहा था कि कहीं ऐसा न हो, धमाकों के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे का मुंह काला करने में जुट जाएं। इसकी शुरुआत हो गई है। राजनीतिक पार्टियों ने बम धमाकों के शिकार निर्दोषों की लाशों पर रोटियां सेंकना प्रारंभ कर दिया है।
मैं एक टीवी चैनल पर बहस देख रहा था। एक तरफ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एवं प्रवक्ता शकील अहमद थे तो दूसरी ओर राजग सरकार में मंत्री रहे भाजपा नेता राजीव प्रताप रूड़ी ने मोर्चा संभाल रखा था। दोनों एक दूसरे पर आरोपों की बंदूकें ताने हुए थे। परन्तु इसमें भी ज्यादा उग्र कांग्रेस के शकील अहमद लगे जो आतंकवाद और ''सांप्रदायिक भाजपा'' को एक समान बताते बताते यहां तक कह गए कि इस देश से इन दोनों को मिटाने की जरूरत है। वे इतने गुस्से में थे कि चैनल के एंकर को ही डांटने के लहजे में बोले, देश कैसे चलता है यह आप भी पहले समझ लीजिए। फेडरल सिस्टम में केन्द्र की अपनी सीमाएं हैं। राज्य सरकारें क्यों नहीं अपने खुफिया तंत्र को मजबूत करती हैं, क्यों केन्द्र के खुफिया तंत्र पर टकटकी लगाए रहती हैं कि वहां से सूचना मिलने पर ही राज्य की पुलिस जागेगी?
यह सही है कि देश के दो बड़े शहरों में आतंकवादी धमाके होने से संप्रग की बन आई है और केन्द्र सरकार की ढाल बनना शकील अहमद की मजबूरी है परन्तु वर्तमान में जो हालात हैं उसमें आग में घी डालने का काम करने के बजाय ऐसी स्थितियों से कैसे निपटा जाए, इस बारे में कोई ठोस कदम उठाने के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष सामूहिक प्रयास कर सकता है। ऐसा करने के बदले भाजपा को सांप्रदायिक बता कर बार-बार टीवी स्क्रीन पर यह दोहराना कि आतंकवाद और सांप्रदायिकता के समर्थकों को एक साथ इस देश से उखाड़ फैंकने की जरूरत है, भावनाओं को भड़काने का काम नहीं तो और क्या है? राजीव प्रताप रूड़ी ने कहा कि राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश की सरकारों ने आतंकवादियों और ऐसे ही अन्य खूंखार तत्वों से निटपने के लिए एक विशेष कानून का मसौदा तैयार कर केन्द्र के पास स्वीकृति के लिए भेजा था परन्तु उन्हें स्वीकृति नहीं दी गई जबकि ऐसे ही कानूनों के लिए कांग्रेस शासित राज्यों को स्वीकृति दे दी गई। ऐसी पक्षपातपूर्ण नीति केन्द्र को क्या शोभा देती है? जब ऐसे सवालों का उचित जवाब कांग्रेस के पास नहीं होता है तो वह गड़े मुर्दे उखाड़ने लगती है। कांग्रेस के नेता यहां-वहां कहते नजर आते हैं कि जिस पार्टी के नेता आतंकवादियों को विमान में बिठाकर कंधार छोड़ने चले गए थे उस पार्टी से हमें कोई सीख लेने की जरूरत नहीं है। कांग्रेस को यह कतई नहीं सोचना चाहिए कि अब तक राजस्थान, कर्नाटक और गुजरात में हुए धमाकों की नाकामी इन प्रदेशों की सरकारों पर थोप कर वह सुख से सांस ले सकेगी। कल सूरत में 18 जिंदा बम मिले जिन्हें खुश किस्मती से निष्प्रभावी करने में सफलता मिल गई। अगर आने वाले दिनों में खुदा न खास्ता किसी कांग्रेस शासित प्रदेश में कोई अनहोनी हुई तो कांग्रेस के नेता क्या चुल्लू भर पानी ढूढते मिलेंगे?
हाल की इन घटनाओं से यह बात राजनीतिक हलकों में उठी है कि देशविरोधी गतिविधियों एवं जघन्य अपराधों से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय स्तर पर एजेंसी होनी चाहिएजिसका तालमेल राज्य खुफिया एवं सुरक्षा एजेंसियों से हो। इस मामले में यह सुझाव भी उपयोगी है कि इस एजेंसी पर नियंत्रण सत्तासीन केन्द्र सरकार का नहीं होबल्कि यह राष्ट्रपति या उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के प्रति जवाबदेह हो ताकि इस पर राज्य सरकारें अंगुली नहीं उठा सकें। राज्यों को हमेशा डर लगा रहता है कि कहीं ऐसी किसी एजेंसी के गठन से उन पर केन्द्र की पकड़ मजबूत न हो जाए।
बेंगलूर और अहमदाबाद के धमाकों का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश में भाजपा भी पीछे नहीं रही है। भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने गैर जिम्मेदाराना बयान देकर यह जग जाहिर कर दिया कि ऐसे राष्ट्रीय चिंता के अवसर पर भी भाजपा मौके का लाभ उठाने के लिए कितनी लालायित है। उन्होंने हाल ही में कहा था, लोकसभा में हुए 'कैश कांड' से जनता का ध्यान हटाने के लिए बम विस्फोट कराए गए हैं। साफ है कि उनका इशारा कांग्रेस की तरफ था। उन्होंने यह दलील भी दी कि यूपीए मुस्लिम वोट बैंक को अपने पक्ष में एकजुट करना चाहता था। सुषमा स्वराज का यह बयान शर्मनाक है क्योंकि उनकी जैसी वरिष्ठ नेता के मुंह से ऐसे गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य ओछी हरकत लगते हैं। हो सकता है कि उन्हें लगा हो ऐसा कहने से एक समुदाय विशेष के वोट, जो बिखरे बिखरे से नजर आ रहे हैं, उनका ध्रुवीकरण हो सकेगा और उनकी पार्टी को इसका लाभ मिलेगा।
जो कुछ भी उनकी मंशा रही हो, यह समय राजनीतिक रोटियां सेंकने का नहीं है। आतंकवाद किसी एक राजनीतिक पार्टी के लिए नुकसान देह और किसी दूसरी के लिए लाभदायक नहीं हो सकता। एक दूसरे पर यह तोहमतों का दौर यहीं खत्म होना चाहिए क्योंकि ऐसे कृत्यों से आतंकवादियों का हौसला बढ़ता है तथा हमारी सुरक्षा एजेंसियों और सुरक्षा बलों का मनोबल गिरता है। इतना ही नहीं, इससे सांप्रदायिक सौहार्द का ताना-बाना भी बिखरने के कगार पर पहुंच जाता है। हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच जहां सौहार्द का सूत्र मजबूत करने की जरूरत है वहां शकील अहमद और सुषमा स्वराज जैसे नेताओं के बयान बिजली के शोर्ट-सर्किट का काम करते हैं। समय चिंगारी भड़काने का नहीं, बम के गोलों के धमाकों के बाद सुलग रही गर्म राख पर पानी डालने का है, बुझाने का है। अगर विपक्ष के सुझावों में दम हो तो उन्हें मानने के लिए सत्ता पक्ष का अहम आड़े नहीं आना चाहिए क्योंकि आतंकवाद की लड़ाई सबको मिलकर लड़नी है। जब बम फटता है तो उसके छर्रे केवल किसी पार्टी विशेष के लोगों को घायल नहीं करते, वह संपूर्ण भारतीयता को आहत करते हैं, इंसानियत को दहलाते हैं। ऐसे समय में नेताओं की बेलगाम वाणी पर लगाम लगनी चाहिए। यह काम उन पार्टियों के आलाकमान का है। उन्हें चाहिए कि अपने सहयोगी नेताओं को निर्देश दें कि आग लगाने वाली भाषा बंद करें और समझदारी का मलहम साथ में रखें।इस समय मीडिया को भी अपना दायित्व ठीक से निभाना है। हालांकि हाल में चैनलों पर जो बहस-मुबाहिसे चल रहे हैं उनमें टीवी एंकर अपनी जिम्मेदारी को समझते हैं, ऐसा दिखाई दे रहा है क्योंकि जैसे ही कोई नेता बम धमाकों के मुद्दे को राजनीतिक रंग देने की कोशिश करता है वैसे ही एंकर बीच में दृढ़ता के साथ न केवल नेताओं को टोकता दिखाई देता है बल्कि कई बार तो उसका लहजा लताड़ का होता है। इस समय ऐसी ही सख्ती की जरूरत है। सबको अपना दायित्व समझना है। जो नहीं समझते उन्हें समझाना है।
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जागो ! इंडिया जागो



अब निश्चय ही भारतवासियों के जागने का समय आ गया है। बिना भयभीत हुए, साहस एवं चतुराई के साथ विषम परिस्थितियों का सामना करने का वक्त आ गया है। सीमा पर सामने दुश्मन दिखाई देता है तो उससे लड़ना आसान होता है परन्तु हमारे बीच रहकर सांप्रदायिक सौहार्द को नष्ट करने का मंसूबा लिए अंदर ही अंदर घात लगाकर अगर देश का दुश्मन हमला करता हो उससे निपटने के लिए सबको एकजुट होना होगा।
गत मई महीने में राजस्थान में सिलसिलेवार बम धमाके हुए थे जिनमें 65 लोगों ने अपनी जान गंवा दी थी। अभी परसों बेंगलूर में 8 जगहों पर धमाके हुए जो कि कम प्रभावशाली थे इसलिए एक महिला की ही बलि ली जा सकी और कल शनिवार शाम को अहमदाबाद में जो एक के बाद एक लगातार 16 धमाके हुए उनसे तो पूरा देश कांप उठा। मरने वालों की संख्या 50 का आंकड़ा पार कर लेगी, क्योंकि 100 से ज्यादा तो लोग घायल हैं, जिनमें अनेक लोगों की हालात गंभीर बनी हुई है।
इस बम कांड से कर्नाटक और गुजरात की भाजपा सरकारें तो दहशत में हैं ही, केन्द्र सरकार के भी हाथ-पांव फूल गए हैं। केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल के मुंह से आवाज नहीं निकल रही है। अगर हालात काबू में करने हैं तो केन्द्र एवं राज्य सरकारों के साथ साथ आम जनता को भी चौकन्ना होना पड़ेगा। आतंकवाद की आग देश के अन्य शहरों में नहीं फैले, इसके लिए सामूहिक प्रयास करने होंगे।
राजनेताओं को इस अवसर पर अपनी दलगत राजनीति से ऊपर उठना होगा और गंभीरता पूर्वक स्थिति का सामना करना होगा। एक 'जिम्मेदार' केन्द्रीय मंत्री शकील अहमद ने कहा कि कर्नाटक और गुजरात सरकारों की ढिलाई एवं नाकामी के कारण आतंकवादियों को धमाके करने का मौका मिल गया। इन कांग्रेसी मंत्री का कहना था कि केन्द्र ने राज्यों को पहले ही आगाह कर दिया था कि आतंकवादी आने वाले दिनों में दुखद घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि गृह मंत्रालय द्वारा समय-समय पर राज्य सरकारों को ऐसे पत्र देकर आगाह करना एक फैशन सा बन गया है। कोई इनसे कहे कि अगर केन्द्र का खुफिया तंत्र प्रभावशाली है और अपने काम में दक्ष है तो उसे यह भी बताना चाहिए कि किस समयावधि में, किस प्रकार के हमले हो सकते हैं तथा निशाने पर कौन हैं? कोई स्थान विशेष की जानकारी हो अथवा हमले को अंजाम देने के तरीके का आभास हो तो उसकी भी मोटा-मोटी जानकारी राज्य सरकार के खुफिया विभाग तक पहुंचाई जानी चाहिए। तभी तो वे भी कोई खास सुरक्षात्मक कदम उठाने के गंभीर प्रयास कर सकते हैं। आतंकवादी जब अपने मंसूबों में कामयाब हो जाएं तो कहीं केन्द्र पर अंगुली न उठे, महज इस आशंका से अगर केन्द्रीय खुफिया विभाग समय-समय पर 'जनरल सूचना पत्र' अपने राज्यीय साथियों को भिजवाने की औपचारिकता पूरी करता हो तो फिर इस देश का भगवान ही मालिक है। अगर देश के प्रमुख खुफिया तंत्र के पास ही पुख्ता जानकारी नहीं हो तो राज्य खुफिया तंत्र से बहुत ज्यादा उम्मीद करना भी तो उचित नहीं है। औपचारिक चेतावनी पत्रों से क्या भला होने वाला है?
एक बात और, फिलहाल इसे संयोग ही मान लिया जाए कि तीन माह में अब तक जो विस्फोट हुए वे तीनों प्रदेश भाजपा शासित हैं इसलिए केन्द्रीय मंत्री शकील अहमद ने भी अपनी पार्टी के स्थानीय नेताओं के सुर में सुर मिलाते हुए कह दिया कि जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। परन्तु, जैसा कि संकेत मिल रहे हैं, कल को अगर आतंकियों का अगला निशाना हैदराबाद, मुम्बई जैसे शहर हुए जहां कांग्रेस सरकारें हैं, तो कांग्रेस और केन्द्र के मंत्री अपना मुंह छिपाने कहां जाएंगे? इसलिए इस समय नेताओं को गंदी राजनीति से बाज आना चाहिए और इस गंभीर मामले को व्यापक दृष्टिकोण से सोचना चाहिए।
भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार आतंकवादियों और खूंखार अपराधियों से निपटने के लिए 'पोटा' कानून लेकर आई थी जिसे संप्रग सरकार ने केवल इसलिए निरस्त कर दिया क्योंकि वह कानून उनके 'विरोधियों' द्वारा लाया गया था। होना यह चाहिए था कि उसमें नई सरकार को जो भी खामियां लग रही थीं, उनका निस्तारण करके उसे दुरुस्त किया जाता और फिर से संशोधित पोटा ( या अन्य किसी नाम से) लागू किया जाता। इससे आतंकवादियों और देशद्रोहियों के हौसले पस्त करने में मदद मिलती तथा देश विरोधी मामलों की जल्दी सुनवाई करवाकर अपराधियों को दंड दिलाया जा सकता। क्योंकि हमारे देश में कानूनी प्रक्रिया इतनी धीमी है, व्यवस्था में इतने 'लूप होल' हैं कि पहले तो अपराधी का अपराध साबित होने में ही वर्षों बीत जाते हैं, बहुत से अपराधी कानूनी दांवपेंच के चलते बच निकलते हैं और जिन्हें सजा हो भी जाती है, उन्हें भी बचने के और मौके मिलते रहते हैं। कई बार निचली अदालतों में बरसों तक सुनवाई के बाद सजा तो दे दी जाती है परन्तु बाद में ऊपरी अदालत में मामला लंबित पड़ा रहता है। यहां तक कि सर्वोच्च अदालत द्वारा सजा सुनाने के बाद भी अपराधियों को, राजनीतिक लाभ के चलते प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष फायदा मिलता रहता है। संसद पर हमला करने के मास्टर माइंड मोहम्मद अफजल को सर्वोच्च न्यायालय फांसी की सजा सुना चुका है। भाजपा जब उसे फांसी देने की मांग करती है तो सब भाजपा विरोधी एकजुट हो जाते हैं और उस मसले को सांप्रदायिकता का जामा पहना देते हैं । मोहम्मद अफजल हो या उससे कुछ कम खूंखार आतंकवादी कोई और हो, जब तक ऐसे मामलों की जांच प्रक्रिया जल्दी पूरी नहीं होगी, कानून अपना काम सख्ती से नहीं करेगा, न्यायपालिका दोष-निर्दोष का फेसला एक समय सीमा में नहीं करेगी और अपराधियों की सजा का क्रियान्वयन नहीं होगा तो फिर देश में आतंकवादी घटनाएं नियंत्रित कैसे होंगी?
आज देशद्रोही अपराधियों के मन में कोई भय नहीं है, ऐसा स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। जब कानून व्यवस्था एवं न्यायप्रणाली का भय ही नहीं रहेगा तो देश में अव्यवस्था और अराजकता का बोलबाला बढ़ जाएगा। राजनेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवादी तो संसद तक पहुंचने में कामयाब हो गए थे। आज फुटपाथ पर सब्जी बेचने वाले को या बस स्टेंड पर बस का इंतजार कर रहे आम आदमी को निशाना बनाया जा रहा है। कल आतंकवादी का हाथ राजेनेताओं के गिरेबान तक पहुंच जाएगा, तब क्या होगा? इसलिए लोकतंत्र के इन नीति नियंताओं को छिछोरी राजनीति करने से बाज आना चाहिए और देश पर आए संकट का गंभीरता से हल खोजने में जुटना चाहिए।
जनता को भी अब जागना होगा। हम सब जानते हैं कि देश के हर एक आदमी के साथ एक पुलिसकर्मी नहीं लगाया जा सकता। देश में पुलिस और खुफिया तंत्र की भी अपनी सीमाएं हैं। वह कितनी भी आंखें खोले हुए हो, हर जगह हर नुक्कड़ चौराहे पर आम आदमी की सुरक्षा नहीं कर सकती। अगर जनता खुद जागरूक हो तो पुलिस, प्रशासन और जनता सब मिलकर आतंकवाद को खदेड़ने में कामयाब हो सकते हैं । आज अहमदाबाद व सूरत में नागरिकों की जागरूकता के चलते ही दो-तीन जिंदा बमों को निष्प्रभावी किया जा सका। अगर संदिग्ध लोगों, वस्तुओं और गतिविधियों की जानकारी समय रहते पुलिस को दी जाए तो षडयंत्रकारियों को घटना के क्रियान्वयन के पहले पकड़ा जा सकता है तथा जानमाल को नुकसान से बचाया जा सकता है। इतना ही नहीं, इससे एक बड़ा फायदा यह है कि षडयंत्र रचने वालों का मनोबल टूटता है तथा देश के नागरिकों की एकजुटता परिलक्षित होती है। देश के सभी नागरिक, चाहे वे किसी भी धर्म, सम्प्रदाय और जाति के हों, उन्हें यह मानना होगा कि आतंकवादियों का कोई मजहब या संप्रदाय नहीं होता, इसलिए देशभक्त सभी नागरिकों को सामूहिक रूप से इनसे लड़ना होगा। इन्हें अलग-थलग करना होगा। अगर सबने अपने-अपने दायित्व का निर्वाह नहीं किया तो राजस्थान, कर्नाटक और गुजरात में जो कुछ हुआ वह देश के किसी भी भाग में होगाऔर पूरे देश को इसकी कीमत चुकानी होगी। इसलिए जागो इंडिया जागो।जब कानून व्यवस्था एवं न्यायप्रणाली का भय ही नहीं रहेगा तो देश में अव्यवस्था और अराजकता का बोलबाला बढ़ जाएगा। राजनेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवादी तो संसद तक पहुंचने में कामयाब हो गए थे। आज फुटपाथ पर सब्जी बेचने वाले को या बस स्टेंड पर बस का इंतजार कर रहे आम आदमी को निशाना बनाया जा रहा है। कल आतंकवादी का हाथ राजेनेताओं के गिरेबान तक पहुंच जाएगा, तब क्या होगा?
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हमाम में सब नंगे






पिछले मंगलवार को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद में जब एक एक हजार रुपए के नोटों की गड्डियां, यह कहते हुए लहराई गईं कि ये नोट तीन भाजपा सांसदों को संप्रग सरकार के विश्वास मत के मतदान के समय सदन में अनुपस्थित रहने के लिए पेशगी के बतौर दिए गए थे, तो संसद में बैठे लोग तो पता नहीं शर्मसार हुए कि नहीं परन्तु इस देश के उस हर मतदाता ने अवश्य अपना माथा पीट लिया, जो इन नेताओं को चुनकर संसद भेजता है। मनमोहनसिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार संख्या के मामले में निश्चय ही जीत गई और विश्वास मत पर होने वाली बहस में जब मनमोहनसिंह शामिल होने संसद में प्रवेश कर रहे थे, उस समय उनके द्वारा अपनी अंगुलियों से 'विक्टरी साइन' बनाया गया था उसकी लाज रखली परन्तु सदन में जो कुछ भी घटा उसने पूरे लोकतंत्र की लाज पर बट्टा लगा दिया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि जब तक जांच द्वारा असलियत का पता नहीं लग जाए तब तक किसी पार्टी विशेष का पक्ष नहीं लिया जा सकता है। परन्तु इस संपूर्ण घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया कि राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं, फिर चाहे वह कोई भी पार्टी क्यों न हों। कौन सा दल दूध का धुला होने का दावा कर सकता है? विश्वासमत में अपनी जीत पक्की करने के लिए अगर एक दल ने रिश्वत देने की कोशिश की तो वह दूसरा दल ईमानदार कैसे हो गया जो नोटों की गड्डियां लेने के लिए खुद किसी के घर चला गया? रिश्वत लेना और देना दोनों ही बराबर के गुनाह हैं। जैसे ही भाजपा के तीन सांसदों ने सदन के पटल पर नोटों से भरे दो बैग रखे और गड्डियां हवा में लहराने लगे तो अपने-अपने घरों में टीवी सैटों के सामने बैठे यह तमाशा देख रहे करोड़ों लोग हक्के-बक्के रह गए किंतु सदन में सन्नाटा नहीं छाया। पक्ष और विपक्ष के लोग अपने-अपने ढंग से खुद के लाभ वाले तथ्य इस घटनाक्रम में खोजने में लग गए।
भाजपा के वरिष्ठ नेता और पार्टी की तरफ से अगले प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने खुद मीडिया के सामने आकर बयान दिया और यह कहा कि संबंधित सांसद पूरे घटनाक्रम की सीडी लोकसभाध्यक्ष को सौंपेंगे। सीडी सौंप भी दी गई। कुछ घंटों तक मतदान स्थगित रहा और फिर पुनः जब सदन की कार्यवाही शुरू हुई तो मतदान प्रक्रिया संपन्न करा दी गई जिसमें सत्ता पक्ष की जीत हुई तथा विपक्ष अपनी एड़ी चोटी का जोर लगाने के बावजूद हार गया।
इस प्रकरण से भले ही मनमोहन सरकार ने अपनी नाक फिलहाल बचा ली हो परन्तु संसद की प्रतिष्ठा तार-तार हो गई। यह साफ हो गया कि राजनैतिक गलियारों में जिसे 'होर्स ट्रेडिंग' यानी कि ''घोड़ों का व्यापार'' कहते हैं, वह जमकर हुआ। घोड़ों की तरह बोलियां लगीं। सभी बड़ी बड़ी पार्टियों के नेताओं ने खुद कहा और माना कि सांसदों की खरीद-फरोख्त का बाजार दो-तीन दिन में ही सेंसेक्स की तरह छलांग लगाता दिखाई दिया। जिसने जिसकी ज्यादा बोली लगाई, 'माल' उसका हो गया। कुछ सांसदों ने तो अपने आपको इतना नीचे गिरा दिया कि ऊंची बोली के लिए सुबह-शाम कभी यहां, कभी वहां ताकते रहे। सुबह इस खेमे में दिखे तो शाम को वापस पुरानी जगह। संसद के इतिहास में इतना गंदा खेल शायद ही कभी हुआ हो। वर्ष 1993 में भी नरसिम्हाराव की सरकार के विश्वास मत प्रस्ताव के पक्ष में वोट डालने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों द्वारा पैसे लेने का आरोप लगा था और पुष्टि भी हो गई थी परन्तु उच्चत्तम न्यायालय ने उस समय कहा था कि यह देखना सदन का काम है कि उसका कोई सदस्य अपने वोट के बदले यदि पैसे लेता है तो उस पर क्या कार्रवाई की जाए। न्यायालय ने कहा कि सदन ऐसे मामलों में निर्णण लेने और सजा देने में खुद सक्षम है परन्तु सदन ने खुद उन सांसदों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। हालांकि बाद में एक अन्य स्टिंग ऑपरेशन मामले में सदन ने नामजद सांसदों को दंडित कर अपनी शक्ति का एहसास करा दिया था परन्तु इससे भी सांसदों ने शायद कोई सीख नहीं ली।
वर्तमान मामले में जांच होगी। होनी भी चाहिए। परन्तु केवल जांच से क्या सामने आएगा और उससे किसको क्या लाभ होगा? जांच ही होनी थी तो तत्काल होती। कुछ घंटे और लग जाते। विश्वासमत एक दिन बाद हो जाता। परन्तु पूरे संसद में किसी ने भी इस बात पर जोर नहीं दिया कि पहले जांच प्रक्रिया पूरी कर ली जाए, सब दलों के प्रतिनिधि बैठकर सीडी अपनी आंखों से देख लें और फिर विश्वासमत पर वोट पड़ जाएं। मतदान हो जाए, इस पर सर्वदलीय सहमति हुई और सत्ता प्रेम का नंगा नाच देखते-देखते देश की जनता ने टीवी पर विश्वासमत भी देख लिया। सीडी में ऐसा क्या है जिस पर निर्णय लेने में कई दिन या महीनों की जरूरत हो सकती है? फिर क्यों तत्काल निर्णय नहीं लिया गया, यह एक सवाल उठना लाजमी है।
विश्वासमत की जब बात प्रारंभ हुई थी तभी कामरेड एबी वर्धन ने यह सबसे पहले उजागर किया था कि एक एक सांसद को 25-25 करोड़ की रिश्वत का लालच दिया जा रहा है। इसके बाद तो सपा नेता अमरसिंह ने कहा कि उनके सांसदों को घूस दी जा रही है। मायावती ने कहा बसपा सांसदों को बरगलाया जा रहा है तो भाजपा भी पीछे नहीं रही, उसने भी ऐसे ही आरोप मढ़े। मतलब साफ था कि सब एक दूसरे की पार्टी में सेंधमारी कर रहे थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही संख्या में जीत गए हों परन्तु सही मायने में जहां पूरी संसद हार गई, लोकतंत्र शर्मसार हो गया, खुले आम संसद में नैतिकता के परखचे उड़ गए, उस संसद के विश्वास को जीतकर भी सही मायने में मनमोहन की हार है।
मनमोहन सिंह कुछ माह और प्रधानमंत्री रह लेंगे तथा मायावती के प्रधानमंत्री बनने के सपने एक बार चूर चूर हो गए, इससे ज्यादा इस विश्वासमत का और कोई महत्त्व नहीं है क्योंकि भाड़े की सेना लाकर कोई रियासत पर फतह हासिल नहीं की जा सकती। जो लोग आज सरकार के साथ किसी न किसी लालच से आए हैं, जिन्हें कुछ मिला है या मिलने की उम्मीद है, वे कल सरकार को आंखें नहीं दिखाएंगे इसकी क्या गारंटी है? क्या वे सरकार को ब्लैकमेल नहीं करेंगे? आज अगर डेढ़ दर्जन सत्ता लोलुप सांसद पाला बदलकर सत्तापक्ष के साथ आ खड़े हुए हैं कल वे ही, और ऊंची बोली लगने पर दामन झिटककर दूसरे पाले में जाकर खड़े नहीं होंगे, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? ऐसे लोग तो हवा के रुख पर ही चलते हैं।कांग्रेस बार बार सोनिया गांधी के त्याग की याद दिलाया करती है कि किस प्रकार उन्होंने प्रधानमंत्री पद को ठुकरा दिया था और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था। वही मनमोहन सिंह अगर पद का मोह त्याग कर अब संसद को भंग करने की सिफारिश कर दें तो इससे एक तो संसद की खोई हुई गरिमा कुछ हद तक लौट सकेगी। जिन सांसदों ने सत्ता और धन के लालच में घिनौना खेल खेला उन्हें फिर से जनता के बीच जाना पड़ेगा और जनता उन्हें सबक सिखाएगी। दूसरी बात, मनमोहन सिंह की इज्जत पूरी देश की जनता के बीच बढ़ जाएगी। जनता को लगेगा कि विश्वासमत जीतने के बाद भी नैतिकता के नए मानदंड स्थापित करते हुए मनमोहन सिंह ने चुनावों की घोषणा करवाकर राजनीति में व्याप्त सड़ांध को साफ करने का दुस्साहस किया है। परन्तु इसकी संभावनाएं कम ही दिखती हैं क्योंकि कांग्रेस के प्रवक्ता, जाने माले वकील अभिषेक मनु सिंघवी कहते हैं कि जिन सांसदों ने रिश्वत ली उन्हें गिरफ्तार करना चाहिए। रिश्वत जिन्होंने दी, उसके बारे में वे चुप रहते हैं या कहते हैं कि यह तो साबित होने पर ही पता चल सकता है। राजनीति के इन्हीं दोहरे मानदंडों ने तो यह साबित किया है कि इस हमाम में सब नंगे हैं।
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