हमाम में सब नंगे

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  • Sunday 27 July 2008
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  • श्रीकांत पाराशर
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  • पिछले मंगलवार को विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की संसद में जब एक एक हजार रुपए के नोटों की गड्डियां, यह कहते हुए लहराई गईं कि ये नोट तीन भाजपा सांसदों को संप्रग सरकार के विश्वास मत के मतदान के समय सदन में अनुपस्थित रहने के लिए पेशगी के बतौर दिए गए थे, तो संसद में बैठे लोग तो पता नहीं शर्मसार हुए कि नहीं परन्तु इस देश के उस हर मतदाता ने अवश्य अपना माथा पीट लिया, जो इन नेताओं को चुनकर संसद भेजता है। मनमोहनसिंह के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार संख्या के मामले में निश्चय ही जीत गई और विश्वास मत पर होने वाली बहस में जब मनमोहनसिंह शामिल होने संसद में प्रवेश कर रहे थे, उस समय उनके द्वारा अपनी अंगुलियों से 'विक्टरी साइन' बनाया गया था उसकी लाज रखली परन्तु सदन में जो कुछ भी घटा उसने पूरे लोकतंत्र की लाज पर बट्टा लगा दिया।
    इसमें कोई दो राय नहीं कि जब तक जांच द्वारा असलियत का पता नहीं लग जाए तब तक किसी पार्टी विशेष का पक्ष नहीं लिया जा सकता है। परन्तु इस संपूर्ण घटनाक्रम ने यह साबित कर दिया कि राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं, फिर चाहे वह कोई भी पार्टी क्यों न हों। कौन सा दल दूध का धुला होने का दावा कर सकता है? विश्वासमत में अपनी जीत पक्की करने के लिए अगर एक दल ने रिश्वत देने की कोशिश की तो वह दूसरा दल ईमानदार कैसे हो गया जो नोटों की गड्डियां लेने के लिए खुद किसी के घर चला गया? रिश्वत लेना और देना दोनों ही बराबर के गुनाह हैं। जैसे ही भाजपा के तीन सांसदों ने सदन के पटल पर नोटों से भरे दो बैग रखे और गड्डियां हवा में लहराने लगे तो अपने-अपने घरों में टीवी सैटों के सामने बैठे यह तमाशा देख रहे करोड़ों लोग हक्के-बक्के रह गए किंतु सदन में सन्नाटा नहीं छाया। पक्ष और विपक्ष के लोग अपने-अपने ढंग से खुद के लाभ वाले तथ्य इस घटनाक्रम में खोजने में लग गए।
    भाजपा के वरिष्ठ नेता और पार्टी की तरफ से अगले प्रधानमंत्री पद के दावेदार लालकृष्ण आडवाणी ने खुद मीडिया के सामने आकर बयान दिया और यह कहा कि संबंधित सांसद पूरे घटनाक्रम की सीडी लोकसभाध्यक्ष को सौंपेंगे। सीडी सौंप भी दी गई। कुछ घंटों तक मतदान स्थगित रहा और फिर पुनः जब सदन की कार्यवाही शुरू हुई तो मतदान प्रक्रिया संपन्न करा दी गई जिसमें सत्ता पक्ष की जीत हुई तथा विपक्ष अपनी एड़ी चोटी का जोर लगाने के बावजूद हार गया।
    इस प्रकरण से भले ही मनमोहन सरकार ने अपनी नाक फिलहाल बचा ली हो परन्तु संसद की प्रतिष्ठा तार-तार हो गई। यह साफ हो गया कि राजनैतिक गलियारों में जिसे 'होर्स ट्रेडिंग' यानी कि ''घोड़ों का व्यापार'' कहते हैं, वह जमकर हुआ। घोड़ों की तरह बोलियां लगीं। सभी बड़ी बड़ी पार्टियों के नेताओं ने खुद कहा और माना कि सांसदों की खरीद-फरोख्त का बाजार दो-तीन दिन में ही सेंसेक्स की तरह छलांग लगाता दिखाई दिया। जिसने जिसकी ज्यादा बोली लगाई, 'माल' उसका हो गया। कुछ सांसदों ने तो अपने आपको इतना नीचे गिरा दिया कि ऊंची बोली के लिए सुबह-शाम कभी यहां, कभी वहां ताकते रहे। सुबह इस खेमे में दिखे तो शाम को वापस पुरानी जगह। संसद के इतिहास में इतना गंदा खेल शायद ही कभी हुआ हो। वर्ष 1993 में भी नरसिम्हाराव की सरकार के विश्वास मत प्रस्ताव के पक्ष में वोट डालने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों द्वारा पैसे लेने का आरोप लगा था और पुष्टि भी हो गई थी परन्तु उच्चत्तम न्यायालय ने उस समय कहा था कि यह देखना सदन का काम है कि उसका कोई सदस्य अपने वोट के बदले यदि पैसे लेता है तो उस पर क्या कार्रवाई की जाए। न्यायालय ने कहा कि सदन ऐसे मामलों में निर्णण लेने और सजा देने में खुद सक्षम है परन्तु सदन ने खुद उन सांसदों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। हालांकि बाद में एक अन्य स्टिंग ऑपरेशन मामले में सदन ने नामजद सांसदों को दंडित कर अपनी शक्ति का एहसास करा दिया था परन्तु इससे भी सांसदों ने शायद कोई सीख नहीं ली।
    वर्तमान मामले में जांच होगी। होनी भी चाहिए। परन्तु केवल जांच से क्या सामने आएगा और उससे किसको क्या लाभ होगा? जांच ही होनी थी तो तत्काल होती। कुछ घंटे और लग जाते। विश्वासमत एक दिन बाद हो जाता। परन्तु पूरे संसद में किसी ने भी इस बात पर जोर नहीं दिया कि पहले जांच प्रक्रिया पूरी कर ली जाए, सब दलों के प्रतिनिधि बैठकर सीडी अपनी आंखों से देख लें और फिर विश्वासमत पर वोट पड़ जाएं। मतदान हो जाए, इस पर सर्वदलीय सहमति हुई और सत्ता प्रेम का नंगा नाच देखते-देखते देश की जनता ने टीवी पर विश्वासमत भी देख लिया। सीडी में ऐसा क्या है जिस पर निर्णय लेने में कई दिन या महीनों की जरूरत हो सकती है? फिर क्यों तत्काल निर्णय नहीं लिया गया, यह एक सवाल उठना लाजमी है।
    विश्वासमत की जब बात प्रारंभ हुई थी तभी कामरेड एबी वर्धन ने यह सबसे पहले उजागर किया था कि एक एक सांसद को 25-25 करोड़ की रिश्वत का लालच दिया जा रहा है। इसके बाद तो सपा नेता अमरसिंह ने कहा कि उनके सांसदों को घूस दी जा रही है। मायावती ने कहा बसपा सांसदों को बरगलाया जा रहा है तो भाजपा भी पीछे नहीं रही, उसने भी ऐसे ही आरोप मढ़े। मतलब साफ था कि सब एक दूसरे की पार्टी में सेंधमारी कर रहे थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भले ही संख्या में जीत गए हों परन्तु सही मायने में जहां पूरी संसद हार गई, लोकतंत्र शर्मसार हो गया, खुले आम संसद में नैतिकता के परखचे उड़ गए, उस संसद के विश्वास को जीतकर भी सही मायने में मनमोहन की हार है।
    मनमोहन सिंह कुछ माह और प्रधानमंत्री रह लेंगे तथा मायावती के प्रधानमंत्री बनने के सपने एक बार चूर चूर हो गए, इससे ज्यादा इस विश्वासमत का और कोई महत्त्व नहीं है क्योंकि भाड़े की सेना लाकर कोई रियासत पर फतह हासिल नहीं की जा सकती। जो लोग आज सरकार के साथ किसी न किसी लालच से आए हैं, जिन्हें कुछ मिला है या मिलने की उम्मीद है, वे कल सरकार को आंखें नहीं दिखाएंगे इसकी क्या गारंटी है? क्या वे सरकार को ब्लैकमेल नहीं करेंगे? आज अगर डेढ़ दर्जन सत्ता लोलुप सांसद पाला बदलकर सत्तापक्ष के साथ आ खड़े हुए हैं कल वे ही, और ऊंची बोली लगने पर दामन झिटककर दूसरे पाले में जाकर खड़े नहीं होंगे, इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? ऐसे लोग तो हवा के रुख पर ही चलते हैं।कांग्रेस बार बार सोनिया गांधी के त्याग की याद दिलाया करती है कि किस प्रकार उन्होंने प्रधानमंत्री पद को ठुकरा दिया था और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया था। वही मनमोहन सिंह अगर पद का मोह त्याग कर अब संसद को भंग करने की सिफारिश कर दें तो इससे एक तो संसद की खोई हुई गरिमा कुछ हद तक लौट सकेगी। जिन सांसदों ने सत्ता और धन के लालच में घिनौना खेल खेला उन्हें फिर से जनता के बीच जाना पड़ेगा और जनता उन्हें सबक सिखाएगी। दूसरी बात, मनमोहन सिंह की इज्जत पूरी देश की जनता के बीच बढ़ जाएगी। जनता को लगेगा कि विश्वासमत जीतने के बाद भी नैतिकता के नए मानदंड स्थापित करते हुए मनमोहन सिंह ने चुनावों की घोषणा करवाकर राजनीति में व्याप्त सड़ांध को साफ करने का दुस्साहस किया है। परन्तु इसकी संभावनाएं कम ही दिखती हैं क्योंकि कांग्रेस के प्रवक्ता, जाने माले वकील अभिषेक मनु सिंघवी कहते हैं कि जिन सांसदों ने रिश्वत ली उन्हें गिरफ्तार करना चाहिए। रिश्वत जिन्होंने दी, उसके बारे में वे चुप रहते हैं या कहते हैं कि यह तो साबित होने पर ही पता चल सकता है। राजनीति के इन्हीं दोहरे मानदंडों ने तो यह साबित किया है कि इस हमाम में सब नंगे हैं।

    2 comments:

    Anonymous said...

    Hi,

    Bomb Blasts in India is a perenial problem, without any long term solution, like road accidents, we(Common people) are hardly doing any thing to control the violence in India. Infact, bomb blast incidents are increasing by the day

    When inflation is highest, huge fuel & power shortage and short of basic amenities, government is keen on signing IAEA (Nuclear deal), which can be postponed, may be signed later, all political parties are gearing up for elections, instead of focusing on improving the condition of their respective states. General public completely engrossed in the Cricket (test, oneday & 20-20)or entertainment

    Who must be blamed? we common people, we voted the existing political leaders to power, hence we must accept the responsibility
    Today, we do not have time for Family, friends, neighbours & colleagues, we dedicate our time for self improvement, growth in career and earning.

    The question is what I can do for the country? however small it may be! let us introspect

    Warm regards,
    Hemant Sharma

    Anonymous said...

    Shrikant Ji, Achha laga aapko blog me.n dekhkar. Blog ki duniya me.n aapka evm Dakshin Bharat ka swagat hai. Net aapke lekh uplabdh hone se un longo.n ko vishesh labh hoga jo kinhi karn se Dakshinbharat nahi pad pa rahe.n hai.n ya India se bahar hai.n

    Anek Shubhkamnayo.n sahit.
    Dr Aditya Shukla