पहले चोरी फिर सीनाजोरी

आजकल हमारे देश में अगर कुछ सौ करोड़ का घोटाला हो तो वह घटना समाचार के योग्य नहीं मानी जाती इसलिए जिनको सुर्खियों में आना है वे हजारों करोड़ के घोटाले से जुड़ते हैं। कुछ वर्ष पहले तक यह बात नहीं थी, इसीलिए 100 करोड़ से भी कम के कथित बोफोर्स घोटाले ने देश को हिला कर रख दिया था और आज दो सौ, पांच सौ करोड़ के घोटाले पर तो कोई कान भी नहीं लगाता। बोफोर्स घोटाला कुल जितनी राशि का बताया गया उससे पांच गुणा राशि तो यह पता करने में खर्च हो गई कि वास्तव में घोटाला हुआ भी था या नहीं और हुआ भी था तो वह रकम गई किसी जेब में? बार बार मुख्य आरोपी के रूप में क्वात्रोच्चि का नाम सुर्खियों में आता रहा और अपने आपको महाशक्ति की दौड़ में अग्रिम पंक्ति में बताने वाला भारत उस क्वात्रोच्चि का बाल भी बांका नहीं कर सका। उल्टे जब-तब वही भारत को धमकाता रहता है।
इसके बाद थोड़ा बड़ा, चारा घोटाला हुआ जिसमें लालूप्रसाद यादव का नाम उछला। नाम उछला तो इतना उछला कि पूछो मत। यों लग रहा था मानो सीबीआई अभी लालूप्रसाद यादव से 400-500 करोड़ रुपए उगलवा लेगी जो मानो उन्होंने किसी चारे के ढेर में छिपा रखे हैं। खोदा पहाड़, निकली चुहिया। उस चारा घोटाले के बाद लालू यादव ज्यादा पोपुलर हो गए। आज भी वे बनियान पहने, अपनी कुर्सी पर पैर ऊपर कर, उकड़ू बैठे देश के बड़े से बड़े नेता पर टिप्पणी करना अपना अधिकार समझते हैं। चारा घोटाले पर अगर कोई पत्रकार उनसे अब एक भी प्रश्न पूछ ले तो उसको वे धकिया देते हैं, गाली भी देने से नहीं चूकते। आज देश में कोई भी ताजा घटना घट जाए, उस पर टिप्पणी लेने के लिए मीडिया वाले सबसे पहले लालू यादव के पास जाते हैं। मान लीजिए चीन के प्रधानमंत्री ने कोई गूढ कूटनीतिक वक्तव्य दिया तो कैमरा लालू यादव के घर पहुंच जाता है, उनकी खास प्रतिक्रिया जानने के लिए, भले ही उन्हें यह भी मालूम नहीं हो कि चीन का प्रधानमंत्री आजकल कौन है। इतने ज्यादा पोपुलर हो गए चारा घोटाले के बाद लालू यादव।
तीन हजार करोड़ रुपए से ज्यादा के स्टांप पेपर घोटाले के बारे में आप क्या कहेंगे? मुख्य आरोपी जिसे बताया जा रहा है वह है तेलगी, जिस पर देशभर की अनेक अदालतों में मुकदमे चल रहे हैं। रह रह कर फैसले भी आ रहे हैं। अगर सभी फैसलों की सजा की अवधि को जोड़ कर हिसाब लगाया जाए तो सजा पूरी काटने के लिए तेलगी को कई जन्म लेने पड़ेंगे। तेलगी अभी जेल में है। बीच बीच में वह शिकायत करता रहता है कि उसे खाना उसकी पसंद के मुताबिक नहीं मिल रहा है। अच्छा खाना खाने पर भी जब वह बीमार होता है तो सरकारी खर्च पर इलाज की भी व्यवस्था है। यह हमारे ही देश में संभव है कि चोर पहले चोरी करता है और बाद में कानून को ही धौंस दिखाता है। इसे ही चोरी और सीना जोरी कहते हैं। हमारी कानून व्यवस्था ऐसी है जहां सजा पाना इतना आसान नहीं है। अगर आदमी अपराध करते हुए रंगे हाथों भी पकड़ लिया जाए तो वह सहज ही कह सकता है कि, 'वकील से विचार विमर्श के बाद टिप्पणी करूंगा' या यह भी कह सकता है कि 'मुझे फंसाया जा रहा है और जो लोग फंसा रहे हैं उनका नाम भी समय आने पर उजागर करूंगा।' वह समय कभी आता भी है क्या, पता नहीं।
अभी अभी कथित रूप से चार हजार करोड़ (कभी ढाई हजार बताया जाता है) का जो घोटाला झारखंड में उजागर हुआ है उसमें वहां के पूर्व मुख्यमंत्री मधुकोड़ा का नाम सामने आया है। वे कुछ दिन तो एक शब्द नहीं बोले, मानो सांप सूंघ गया हो और अब छाती ठोककर चुनावी सभाओं में भाषण दे रहे हैं कि उन्हें कुछ लोग मटियामेट करने के लिए फंसा रहे हैं। जिस आदमी ने हजारों करोड़ का घपला किया हो उसे कोई कैसे मटिया मेट कर सकता है? मधुकोड़ा कह रहे हैं कि उनको फंसाने वालों पर वे मानहानि का मुकदमा ठोंकेंगे। लीजिए, कर लीजिए बात।
मजे की बात यह है कि हमारे देश में आम नागरिक अगर 50 हजार रुपए से एक रुपया भी ज्यादा एक साथ जमा कराना चाहे तो कोई भी बैंक पहले उसका पेन नम्बर पूछेगा तथा और भी दो-पांच सवाल कर ही लेगा परन्तु कहते हैं कि मधुकोड़ा और उनके साथियों ने एक ही बैंक में 400 करोड़ से ज्यादा की राशि एक मुश्त जमा करा डाली। किसी ने कुछ नहीं पूछा। बैंक भी गरीबों के दुश्मन हैं। करोड़ों में कोई जमा कराए तो कुछ नहीं पूछा जाता। राशि इतनी बड़ी हो तभी तो जमा कराने वाले को और जमा करने वाले को मजा आएगा। आप एक मामूली सी 51 हजार रुपए की राशि जमा कराने जाएंगे तो फजीयत नहीं करवाएंगे तो और क्या होगा? दो सवाल कोई भी करेगा। करोड़ों लेकर जाइए बैंक और जमा कराइए, देखिए किसकी ताकत है कोई प्रश्न पूछने की? बैंक भी औकात देखता है।
जैसे जैसे हमारे नेता अपनी औकात बढ़ाते जाते हैं, हम लोग गर्व महसूस करते हैं। हम कह सकते हैं कि हमारे देश में बहुत संभावनाएं हैं। जो लोग समझते हैं कि देश गरीब है, वह गलत समझते हैं। जहां गरीबी हो वहां हजारों करोड़ के घोटाले कैसे हो सकते हैं?
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दशहरा जंबो सवारी के 'हाथी'.


प्रसिध्द मैसूर दशहरे का नाम आते ही हाथियों का जिक्र होना स्वाभाविक हो जाता है। दशहरे की जंबो सवारी में इन हाथियों को शामिल किया जाता है। 10 दिनों तक चलने वाले इस उत्सव में हाथियों को विशेष सम्मान एवं स्थान प्राप्त है। दशहरे के लिए हाथियों का चुनाव कुछ दिनों पहले से प्रारंभ कर दिया जाता है। चुनाव करने से पहले वन अधिकारी इन हाथियों की शारीरिक क्षमता के साथ ही इनकी भावनात्मक, बौध्दिक क्षमता परखते हैं और इनकी शोर करने एवं शोर सहने की क्षमता का आंकलन भी किया जाता है। पशु चिकित्सक तनावपूर्ण स्थितियों में इनके धैर्य का परीक्षण और हौदा रखने की योग्यता का भी आंकलन किया जाता है।
इसके बाद इन्हें विशेष प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। प्रशिक्षण के पश्चात् एक विशेष हाथी का चुनाव किया जाता है जो सभी मापदंडों पर खरा उतरे। इस हाथी का नामकरण अंबारी के रूप में होता है। अंबारी वह हाथी है जिस पर लगभग 750 किलो का 'स्वर्ण हौदा' रखा जाता है। इस हाथी को शोभायात्रा में सबसे अलग दिखने के लिए विशेष तरह से सजाया जाता है। आप को जानकर आश्चर्य होगा कि पिछले कई वर्षों से एक ही हाथी को 'अंबारी' हाथी होने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है, जो अब बूढ़ा हो गया है। इतिहासकारों के अनुसार इन हाथियों के चुनाव में मैसूर के राजा काफी उत्साहित रहते थे। वर्ष 1925 में राजा ने हाथियों का चुनाव करने के लिए अपने विशेष व्यक्ति को 400 रुपए के खर्च पर असम और बर्मा के क्षेत्रों की ओर रवाना किया गया था। यह व्यक्ति वहां महीनों रहने के पश्चात् कुछ हाथियों का चुनाव करके मैसूर लेकर आता था। एक बार राजा कृष्णराजा वाडेयार ने लकड़ी के एक व्यापारी से 10 हाथियों को केवल 30 हजार रुपए में खरीदने से मना कर दिया था क्योंकि उनमें से एक भी हाथी 'अंबारी हाथी' बनने की क्षमता नहीं रखते थे। फिर उन्होंने बर्मा के जंगलों में अपने एक आदमी को हाथियों के शिकार के लिए भेजाजहां से वह व्यक्ति हाथियों की तस्वीर खींचकर राजा को भेजता था। तस्वीर देखकर राजा तय करते थे कि उस हाथी को लाना है कि नहीं। इन सभी घटनाओं से 'अंबारी' हाथी की अहमियत का पता चलता है।
हाथियों की बढ़ती उम्र अब समस्या बनती जा रही है। जंबो सवारी के कई हाथी उम्र दराज हो गए हैं और उनकी जगह नए हाथियों की खोज जारी है। 'स्वर्ण हौदा' लेकर चलने वाले हाथी बलराम की उम्र 50 वर्ष हो चुकी है और उसके साथी श्रीराम 51, मैरीपर कांति 68, रेवती 54 और सरला 64 वर्ष के हैं।
उनके स्थान पर नए हाथियों की खोज काफी मुश्किल हो रही है क्योंकि जंगल की आबोहवा से परिचित हाथियों को 'शहरी जंगल' के वातावरण से परिचित करना मुश्किल काम है।
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'गोम्बे हब्बा' को फिर से लोकप्रिय बनाने का प्रयास


मैसूर। दशहरे की परंपराओं के साथ यहां का 'गोम्बे हब्बा' (गुड़ियों का उत्सव) विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। यह परंपरा मैसूरवासियों के लिए खासी महत्वपूर्ण रही है। यह उसी समय से चली आ रही है जिस समय वाडेयार राजघराने के शासक मैसूर की सत्ता पर आसीन थे। इस नजरिए से मैसूरवासियों की संवेदनाएं तथा बेहतर भावनाएं भी इस परंपरा के साथ काफी करीबी से जुड़ी हुई हैं। बहरहाल, इन दिनों गुड़ियों के मेले को पहले की तरह राजकीय घराने का पृष्ठपोषण न मिल पाने से इसके आकर्षण में कुछ कमी जरूर दिखने लगी है।
उल्लेखनीय है कि गोम्बे हब्बा नवरात्रि का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो मैसूर के साथ ही लगभग पूरे राज्य में काफी पसंद किया जाता है। दशहरे के मौके पर प्रत्येक घर में गुड़ियों का मेला जरूर देखने को मिल जाता है। मैसूर पैलेस बोर्ड के अधिकारियों के मुताबिक, इस परंपरा में काफी गहरा अर्थ छिपा है। गोम्बे हब्बा के तहत नौ गुड़ियों की सजावट की जाती है जो देवी दुर्गा या चामुंडेश्वरी के नौ रूपों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन नौ गुड़ियों में महिलाओं की हस्तकला दक्षता की झलक भी मिलती है। कलात्मक रूप से देखा जाए तो पुराने मैसूर में इन गुड़ियों की काफी बारीक सजावट की जाती थी। आम तौर पर घरेलू महिलाएं इन गुड़ियों को तैयार किया करती थीं। इनमें दशहरे के उत्सवी माहौल की झलक देखने का प्रयास भी किया जाता था। बताया जाता है कि यह परंपरा 16वीं सदी के वाडेयार शासक राजा वाडेयार के समय में शुरू हुई थी।
शुरुआती तौर पर गोम्बे हब्बा में देवी गौरी की आकृतियों को प्रतिमाओं में संवारने का प्रयास किया जाता था। दशहरे के नौ दिनों के दौरान इन प्रतिमाओं को देवी दुर्गा के नौ अलग-अलग कल्पित रूप दिए जाते थे। लोग अपने घरों में इन्हीं प्रतिमाओं की पूजा भी किया करते थे। 18 वीं शताब्दी के अंत में यह परंपरा थोड़ी-सी बदल गई। वाडेयार शासकों ने प्रतिमाओं के स्थान पर गुड़ियों की सजावट शुरू कर दी। इसके साथ ही गोम्बे हब्बा की शुरुआत मानी जाती है। राजपरिवार के लोगों ने भी देवी दुर्गा की गुड़ियों में खासी दिलचस्पी लेने लगे। यहां तक, कि मैसूर राजमहल में ही एक खास स्थान गुड़ियों को बनाने तथा उन्हें करीने से सजाने के लिए चिह्नित कर दिया गया। इस स्थान को 'गोम्बे तोट्टी' के नाम से जाना जाता था।
पहले-पहल तो दशहरे का महोत्सव राज परिवार के लोगों के लिए ही हुआ करता था लेकिन आगे चलकर इसे आम लोगों के लिए भी शुरू कर दिया गया। फिर भी, एकबारगी सबको इस उत्सव में शामिल नहीं किया गया। सिर्फ राजदरबार के उच्च-पदस्थ लोगों को ही दशहरे के त्यौहार में शामिल किया गया। धीरे-धीरे कुछेक दशकों बाद इसे सार्वजनिक रूप से मनाया जाने लगा। गोम्बे हब्बा के दौरान घरों के बच्चों को (खास तौर पर कन्याओं को) जो गुड़िया सबसे अधिक पसंद होती थी वह उनकी शादी के समय माता-पिता उनके साथ दे दिया करते थे। उन दिनों विवाहित किशोरियों के बीच गुड़ियों के साथ खेलना पसंद किया जाता था। इस परंपरा ने भी गोम्बे हब्बा को पूरे राज्य में अधिक लोकप्रियता दिला दी। इसमें घरों के बच्चे बहुत ही जोश के साथ भाग लिया करते थे क्योंकि गुड़ियों के चयन तथा उनकी सजावट के मामलों में घरों के बड़े-बुजुर्ग बच्चों के साथ जरूर सलाह-मशविरा किया करते थे। इससे गोम्बे हब्बा में उनकी मस्ती दोगुनी हो जाती थी।
वर्तमान में घरों में आयोजित किए जाने वाले इस गोम्बे हब्बा में गुड़ियों को नौ स्तरों पर सजाया जाता है। प्रत्येक दिन नई गुड़िया बनाकर उसे पिछले दिनों की गुड़ियों के साथ शामिल किया जाता है। इन्हें देवी दुर्गा के नौ नामों शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी तथा सिध्दिरात्रि के नामों से ही पुकारा जाता है। माना जाता है कि यह गुड़ियाएं दैवी स्वरूप धारण कर अशुभ आत्माओं से परिवारों की रक्षा करती हैं।
वाडेयार शासकों का राज्यकाल समाप्त होने के बाद गुड़िया बनाने की कला को पर्याप्त पृष्ठपोषण न मिलने के कारण इनके कलात्मक पक्ष पर अब किसी की नजर लगभग नहीं के बराबर पड़ती है। गुड़िया बनाने की इस कला को प्रोत्साहन देने के लिए शहर की एक कला दीर्घा ने दशहरे के दौरान 'बोम्बे मने-2009' के नाम से एक विशेष उत्सव का आयोजन किया है। इस उत्सव में कर्नाटक के साथ ही आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार तथा पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के कलाकारों द्वारा बनाई गई गुड़ियों का प्रदर्शन किया गया है। इन कलाकारों ने प्रत्येक गुड़िया को खास रंग-रूप दिया है।
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वायु सेना का आपूर्ति आदेश हासिल करने की होड़ में लॉकहीड-मार्टिन


बेंगलूर। भारतीय वायुसेना ने इस वर्ष की शुरुआत में 126 मध्यम दूरी की क्षमता वाले मल्टी-रोल लड़ाकू विमान (एमएमआरसीए) की खरीदारी की मंशा जताई थी। इसकी मंशा में अपने लिए बेहतरीन कारोबारी अवसर देखते हुए दुनिया भर की अग्रणी रक्षा क्षेत्र की कंपनियों ने अपने-अपने उत्पाद वायु सेना को बेचने की कोशिश शुरू कर दी है। अमेरिका की विशालकाय विमानन कंपनी लॉकहीड मार्टिन ने अपने विशेष उत्पाद एफ-16 सुपर वाइपर को भारतीय वायुसेना की जरूरतों पर पूरी तरह से खरा उतरने वाला बताते हुए कहा कि यह लड़ाकू विमान अमेरिका में अत्यधिक सफल रहा है। यह भारतीय वायुसेना द्वारा घोषित सभी विशेषताओं से भरा है। कंपनी के प्रतिनिधियों ने तो यहां तक विश्वास जताया कि यह विमान भारतीय वायुसेना की अपेक्षा से भी बेहतर साबित होगा।
सोमवार को यहां पत्रकारों को संबोधित करते हुए लॉकहीड मार्टिन के प्रमुख टेस्ट पायलट जिम 'बेन्सन' हेज ने कहा कि सुपर वाइपर विमान अद्वितीय लड़ाकू विमान है। पूरी दुनिया इसे पांचवीं पीढ़ी का लड़ाकू विमान मानती है। यह विमान विश्व की सभी वायुसेनाओं के बीच धरोहर के रूप में देखे जानेवाले दो सफलतम विमानों एफ-35 लाइटनिंग 2 तथा एफ 22 रैप्टर की तरह सफल माना जाता है। उन्होंने कहा, 'यह अद्वितीय लड़ाकू विमान भारतीय वायुसेना द्वारा घोषित स्तरों पर पूरी तरह से खरा उतरेगा तथा उनमें से कई मानदंडों को तो यह विमान पार भी कर लेगा। यह विमान भारतीय वायुसेना के पास उपलब्ध मूलभूत ढांचे पर बिल्कुल फिट बैठेगा तथा सेना इसका उपयोग तत्काल शुरू कर सकेगी।'
उल्लेखनीय है कि लॉकहीड-मार्टिन के एफ-16 सुपर वाइपर विमानों की यहां एक सप्ताह लंबी चली जांच की प्रक्रिया पूरी हो गई है। यह इस विमान के पहले चरण की जांच बताई गई है। यह बेंगलूर से उड़ान भरकर आगे की जांच के लिए राजस्थान के जैसलमेर जिले में पहुंचेगा। वहां विशेष तापमान की स्थिति में इसकी कार्यक्षमता की जांच की जाएगी। जांच का तीसरा चरण लेह (लद्दाख) में पूरा किया जाएगा। लेह में यह पता किया जाएगा कि अत्यधिक ऊंचाइयों में यह विमान कितनी कुशलता के साथ अपनी अपेक्षित जिम्मेदारियां निभा सकेगा। इस विमान से पहले एक अन्य अमेरिकी विमानन कंपनी बोइंग द्वारा निर्मित अत्याधुनिक लड़ाकू विमान एफ-18/ए सुपर हॉर्नेट की मारक तथा आक्रामक क्षमताओं का प्रदर्शन भी बेंगलूर में किया जा चुका है।
वायुसेना से आपूर्ति आदेश हासिल करने की उम्मीद बांधे कतार में खड़ी दुनिया की अन्य कंपनियों तथा उनके उत्पादों में ईएडीएस का यूरोफाइटर टाइफून, रूस निर्मित मिग-35, एसएएबी एवं रैफाले द्वारा निर्मित ग्रिपेन जैसे अत्याधुनिक तकनीक से लैस लड़ाकू विमान शामिल हैं। इन प्रतियोगियों से आगे निकलने का प्रयास करते हुए लॉकहीड-मार्टिन के वरिष्ठ प्रबंधक (अंतरराष्ट्रीय संवाद) जॉन गीज ने कहा कि एफ-16 सुपर वाइपर की यह खासियत भारत को विशेष आकर्षक लगेगी कि इसमें नए तकनीकी आविष्कारों को भी समायोजित करने की पर्याप्त संभावना है। उन्होंने कहा, 'इस विमान का वजन भारतीय वायुसेना का आपूर्ति आदेश प्राप्त करने के लिए चल रही प्रतियोगिता से कम है। यह मात्र 24 हजार पौंड वजन का विमान है। इसके इंजन 32 हजार पौंड का दबाव उत्पन्न करते हैं तथा यह एक ही साथ 8 हजार हथियार लेकर उड़ान भर सकता है।' उन्होंने इस तथ्य पर भी विशेष जोर दिया कि एफ-16 लड़ाकू विमानों ने अब तक अपनी जांच के लिए 13 लाख घंटों की उड़ान भरी है। इनमें से 4 लाख घंटे की उड़ान के दौरान इसकी लड़ाकू क्षमताओं की जांच की गई। उन्होंने कहा, 'लॉकहीड-मार्टिन अपने प्रत्येक ग्राहकों की जरूरतों को समझती है तथा उनके मुताबिक उच्चतम स्तर की तकनीकी क्षमता मुहैया करवाती है।'
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मैसूर दशहरे की जंबो सवारी


मैसूर। हमेशा की तरह इस बार भी दशहरा महोत्सव के अंतिम दिन 'विजयादशमी' के मौके पर सबकी नजर मैसूर के वाडेयार राजघराने की दो खास धरोहरें सबका ध्यान खींचेंगी। इनमें से एक है वाडेयार राजघराने का सोने का सिंहासन तथा जंबो सवारी के मौके पर सबसे आगे चलने वाले हाथी की पीठ पर रखा जाने वाला सोने का हौदा। विजयादशमी के दिन वाडेयार राजघराने के अन्तिम उत्तराधिकारी श्रीकांतदत्त नरसिंहराज वाडेयार अपने पुरखों के दरबार में आयोजित होने वाले एक प्रतीकी कार्यक्रम के दौरान सोने के सिंहासन पर आरूढ़ होंगे तो उसी दिन 750 किलोग्राम वजनी हौदे पर मैसूर की अधिष्ठात्री देवी चामुंडेश्वरी की प्रतिमा जंबो सवारी में शामिल की जाएगी। इन दोनों के समृध्द इतिहास तथा इनसे जुड़ी परंपरा के कारण प्रत्येक वर्ष दशहरे के कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले दर्शक तथा पर्यटक इनके बारे में खास दिलचस्पी लेते हैं।
ऐतिहासिक तथ्यों के मुताबिक, वाडेयार शासकों का बहुमूल्य स्वर्ण सिंहासन मूलत: महाभारतकाल के पांडवों का सिंहासन हुआ करता था। वर्ष 1338 में विजयनगर साम्राज्य के राजगुरु विद्यारण्य ने इस सिंहासन को खोज निकाला। उल्लेखनीय है कि राजगुरु विद्यारण्य की मदद से ही विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की गई थी। समूचे दक्षिण भारत के इस महान साम्राज्य के संस्थापकों में से एक हरिहर प्रथम के वे गुरु थे। हरिहर के सिंहासनारोहण के लिए इसी स्वर्ण सिंहासन का प्रयोग किया गया था। विजयनगर साम्राज्य के अस्तित्व के एक सौ वर्षों के इतिहास में कई शासक इस सिंहासन पर बैठे। बीजापुर, गोलकुंडा, अहमदनगर की संयुक्त सेना के हमले से विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद यह सिंहासन केलादी तथा इक्केरी के नायकों के हाथ लग गया। मैसूर के वाडेयार राजघराने के शासकों को यह सिंहासन वर्ष 1609 में इन्हीं नायकों में से एक श्रीनर्य से मिला। राजा वाडेयार वर्ष 1610 में जिस दिन इस सिंहासन पर आरूढ़ हुएवह विजयादशमी का ही दिन था। इसके साथ ही वाडेयार शासकों द्वारा विजयादशमी मनाने की परंपरा शुरू हुई।
यह सिंहासन काफी समय के लिए वाडेयार राजघराने के पास नहीं रहा। वर्ष 1799 में टीपू सुल्तान द्वारा स्थापित साम्राज्य के पतन के बाद श्रीरंगपटना स्थित टीपू महल से यह सिंहासन दोबारा खोज निकाला गया। वाडेयार राजघराने के उत्तराधिकारी राजा वाडेयार तृतीय इस सिंहासन पर आरूढ़ हुए। तब से यह सिंहासन वाडेयार राजघराने के पास ही रहा। उल्लेखनीय है कि इस सिंहासन का निर्माण मूलत: पीपल की लकड़ी से किया गया था। इसके बारे में राजा कृष्णराज वाडेयार तृतीय द्वारा वर्ष 1859 में रचित कृति 'देवतानाम कुसुमांजरी' में पूरी व्याख्या है। इस सिंहासन तक पहुंचने के लिए बनी सीढ़ियों को मजबूती देने के लिए बनी संरचनाओं में विभिन्न देवी-देवताओं की लघु-प्रतिमाएं बनी हुई हैं। इसके दक्षिण में भगवान ब्रह्मा, उत्तर में भगवान महेश्वर तथा केन्द्र में भगवान विष्णु की प्रतिमाएं बनी हुई हैं। इसके चारों कोनों पर भी विभिन्न देवताओं तथा चार सिंह प्रतिमाओं के साथ ही भारतीय मिथकों में वर्णित 'ंशार्दूल', दो घोड़े तथा राजहंसों की प्रतिमाएं एवं चित्र बने हुए हैं। सिंहासन पर बनी सोने की छतरी पर अनुष्टुभ छंद में 24 श्लोक लिखे गए हैं।
पिछले कुछ वर्षों के दौरान इस सिंहासन की जहां ऊंचाई मूल सिंहासन की अपेक्षा बढ़ाई गई है वहीं इसमें कई अन्य परिवर्तन भी किए गए हैं। इसके आसन तक पहुंचने के लिए मूल सिंहासन में बनी सीढ़ियों की संख्या भी बढ़ाई गई है। इन परिवर्तनों के बावजूद सिंहासन की मूल सजावटी विशेषताओं को बरकरार रखा गया है। मैसूर महल में इस सिंहासन के साथ ही कई अन्य खास सिंहासन भी हैं जिनमें देवी चारमुंडेश्वरी की प्रतिमा सहित मयूर वज्रासन सिंहासन मुख्य है। एक अन्य सिंहासन सिंह वज्रासन का उपयोग वाडेयार राजघराने के शासक तथा उनकी पत्नी के द्वारा किया जाता था। अब तक इसका उपयोग राजघराने के अंतिम उत्तराधिकारी श्रीकांतदत्त नरसिंहराज वाडेयार द्वारा दशहरे के दौरान आयोजित होनेवाले विभिन्न कार्यक्रमों में किया जाता है।
इस ऐतिहासिक सिंहासन को राज्य सरकार ने अब अपने नियंत्रण में ले लिया है तथा दशहरा जंबो सवारी के मौके पर ही इसे आम जनता को प्रदर्शित करने के लिए राजकीय खजाने से निकालकर मैसूर महल परिसर में रखा जाता है।
इस सिंहासन की ही तरह वाडेयार राजघराने के शासकों के हौदे को भी दशहरे की जंबो सवारी के दौरान मुख्य आकर्षण माना जाता है। इस हौदे को कब बनाया गया इस बारे में सटीक ऐतिहासिक तथ्य नहीं मिलते हैं लेकिन माना जाता है कि इसे वाडेयार राजघराने के सिध्दहस्त स्वर्णकारों द्वारा ही बनाया गया होगा। दशहरे के मौके पर हाथियों की पीठ पर रखे जानेवाले इस शानदार हौदे पर सवार होकर वाडेयार शासक तथा उनके परिवार के सदस्य मैसूर की प्रमुख सड़कों से गुजरा करते थे। वर्ष 1970 से दशहरा जंबो सवारी के मौके पर इस हौदे पर मैसूर की अधिष्ठात्री देवी चामुंडेश्वरी को बिठाने का चलन शुरू हुआ।
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पत्रकार मित्रों से निवेदन


अपने पत्रकार मित्रों से एक खास सहयोग की अपेक्षा करता हूं। मैं चाहता हूं कि आप हमारे लिए कोई ऐसा अनुभवी पत्रकार साथी ढूंढकर दें जिसे राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में काम का अनुभव हो, जो यह जानता हो कि कैसी सामग्री ऐसी पत्रिका में होनी चाहिए, जिसे संपादन का अनुभव हो, स्टोरी लिखने का अनुभव हो। जो अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं की पत्र-पत्रिकाओं पर नजर रखते हुए पाठक की नब्ज को पहचान सके, सामयिक विषयों पर पढ़ने-लिखने का जिसे शौक हो। ऐसा साथी हमें हमारे बेंगलूर कार्यालय में हमारी आनेवाली पत्रिका 'भारतीय ओपिनियन' की संपादकीय टीम में चाहिए। हमारी कोशिश होगी कि हम योग्यतानुसार वेतन दें।
हमारा यहां बेंगलूर में 12 पृष्ठों का प्रात:कालीन हिन्दी दैनिक भी प्रकाशित होता है।
यह अखबार www.dakshinbharat.com वेबसाइट पर भी उपलब्ध है।
इस पते पर मुझसे संपर्क किया जा सकता है :
श्रीकांत पाराशर
12/1, सौराष्ट्रपेट मेन रोड
बेंगलूर - 560053
मोबाइल फोन नंबर - 099945488004
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संग्रहालयों का भी शहर है मैसूर


मैसूर। महलों के शहर के नाम से मशहूर मैसूर में बीसियों संग्रहालय इस शहर की धरोहरों को संजोने का काम कर रहे हैं। इन संग्रहालयों में विशेष हैं श्री जयचामराजेन्द्र संग्रहालय तथा कला दीर्घा, प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय, मैसूर विश्वविद्यालय लोककथा संग्र्रहालय, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, ओरियेंटल रिसर्च इंस्टीटयूट (ओआरआई), रेलवे संग्रहालय, मैसूर महल तथा वाडेयार राजघराने के वर्तमान उत्तराधिकारी श्रीकांतदत्त नरसिंहराज वाडेयार का निजी संग्रहालय, अपने-आप में अद्वितीय संग्रहालय 'विश्व', जेएसएस महाविद्यापीठ संग्रहालय (सुत्तुर)। विशेषज्ञों का कहना है कि इन सभी संग्रहालयों में काफी प्रभावशाली ढंग से इतिहास को संजोकर रखने का प्रयास किया जा रहा है लेकिन इस समय जरूरत इस बात की है कि इन संग्रहालयों में रखी समृध्द धरोहरों कों भी मैसूर आने वाले पर्यटकों के बीच भी लोकप्रिय बनाया जाए। इसके लिए पर्यटन विभाग को प्रयास करने की जरूरत है। इन धरोहरों की जानकारी आम जनता को मिलने से मैसूर में पर्यटन गतिविधियों को अधिक प्रोत्साहित किया जा सकता है।
मैसूर के विश्व प्रसिध्द जगमोहन महल में स्थित जयचामराजेन्द्र संग्रहालय तथा कला दीर्घा को आम जनता के लिए वर्ष 1955 में खोला गया था। इस संग्रहालय को तत्कालीन वाडेयार शासक जयचामराज वाडेयार ने ही जनता को समर्पित किया था। इसमें ऐतिहासिक धरोहरों का बड़ा खजाना मौजूद है जो मैसूर के इतिहास के साथ ही शहर की सभ्यता-संस्कृति की पहचान बन चुकाहै। इस संग्रहालय का दौरा करने वालों को मैसूर के साथ ही दुनिया के कई देशों से लाकर रखी गई खास चीजें आकर्षित करती हैं। इनमें फ्रान्स से लाई गई संगीतमय घड़ी कलेंडर प्रमुख है। इसमें लोगों को दिनांक तथा समय अलग-अलग पैनलों पर दिखता है और साथ ही संगीत का भी आनंद मिलता है। माना जाता है कि यह घड़ी कलेंडर पूरे देश में एक ही है। संग्रहालय में वाडेयार राजघराने के सदस्यों द्वारा बनाई गई पेंटिंग्स का एक बड़ा खजाना है। इसमें वाडेयार शासकों द्वारा समय-समय पर प्रचलित सिक्कों तथा उनके द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले परिधानों का भी अच्छा संकलन है। इस संग्रहालय भवन को देखकर भी वाडेयार राजघराने के शासकों के रुतबे का अंदाजा लगाया जा सकता है।
केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के तत्वावधान में स्थापित किए जाने वाले क्षेत्रीय प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय (आरएमएनएच) की स्थापना मैसूर में वर्ष 1988 में हुई थी तथा इस संग्रहालय को वर्ष 1995 में आम जनता के लिए खोला गया था। इसमें दर्शकों के लिए एक गुफानुमा संरचना बनी हुई है। इसी गुफा से गुजरते हुए दर्शकों के सामने जीवन के शुरुआत की रोचक कहानी परत-दर-परत खुलती जाती है। इसके साथ ही इस गुफा में लोगों को चार्ल्स डार्विन के जीवन के विकास का सिध्दान्त भी समझ में आ जाता है। यह पूरे देश में दृष्टिबाधितों के लिए संग्रहालय बाग का काम करने वाला पहला संग्रहालय है। इसके साथ ही इसे जीवन विज्ञान का अध्ययन करने के लिए एक बेहतरीन संसाधन माना जाता है। खास तौर पर दृष्टिबाधित छात्र-छात्राओं को इस संग्रहालय में विभिन्न पेड़-पौधों पर ब्रेल लिपि की मदद से लिखे उनके नाम पढ़कर तथा उनकी विशेष सुगंधों से उनको पहचानने की सुविधा मिलती है। वे पेड़-पौधों की पत्तियों का स्वाद चखकर उन्हें याद रख सकते हैं। इस बगीचे में रोमांचकारी खेलों की भी व्यवस्था की गई है।
लोककथा संग्रहालय में 15 हजार से अधिक लोककथाओं तथा पुरातात्विक महत्व की चीजों का संकलन किया गया है। यह मैसूर विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित है। इसे दक्षिण-पूर्वी एशिया का सबसे बड़ा संग्रहालय माना जाता है। इसमें गुजरे हुए जमाने की पहचान करने का अवसर मिलता है। उल्लेखनीय है कि जिस जयलक्ष्मीविलास महल में यह संग्रहालय स्थित है, वह काफी पुराना होने के कारण ध्वस्त होने की कगार पर पहुंच गया था। हाल ही में इस भवन की मरम्मत तथा नवनिर्माण भी किया गया है। इस कार्य में 2 करोड़ रुपए व्यय किए गए हैं।
वर्ष 1891 में मैसूर के शासक चामराज वाडेयार ने भी यहां एक संग्रहालय की स्थापना की थी। इसे ओआरआई के नाम से जाना जाता है। इसकी स्थापना तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने करवाई थी। इसकी स्थापना का मुख्य उद्देश्य मैसूर के विभिन्न विद्वानों द्वारा लिखी जाने वाली उत्कृष्ट पुस्तकों का संरक्षणकरना तथा अगली पीढ़ी के हाथों तक उन्हें सुरक्षित पहुंचाना था। इस समय इस संग्रहालय में 60 हजार से अधिक पांडुलिपियों तथा 30 हजार से अधिक उत्कृषट स्तर की किताबों का संग्रह उपलब्ध है। इस संग्रहालय की तरफ प्रत्येक वर्ष विदेशी पर्यटक बड़ी संख्या में आकर्षित होते हैं।
शहर के रेलवे संग्रहालय को भी मैसूर के संग्रहालयों में काफी महत्वपूर्ण स्थान हासिल है। इसकी स्थापना वर्ष 1979 में की गई। इसमें वर्ष 1881 से 1951 तक संचालित मैसूर राज्य रेलवे के दिनों की यादें ताजी हो जाती हैं। इसमें रखी गई यादगार वस्तुएं पूर्व में कभी मैसूर राजमहल की शान में चार चांद लगाती थीं। शहर के स्कूलों में कभी विशेष किसी कारण से छुट्टी हो जाए तो स्कूली छात्र-छात्राओं को तत्काल रेलवे संग्रहालय की तरफ भागते हुए देखा जाता है। इसमें 19 वीं शताब्दी के समय से लेकर अब तक रेलवे के क्रमिक विकास की वर्गीकृत जानकारी मिल जाती है। लोकोमोटिव वाष्प इंजनों के कई मॉडल भी इस संग्रहालय की शान बढ़ाते हैं।
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क्षमा चाहता हूं


क्षमा चाहता हूं, ब्लॉग मित्रों से। काफी लंबे अरसे तक मैं ब्लॉग पर नहीं था, इसका मुझे अफसोस है। इस दौरान मैं आपकी अच्छी रचनाओं और विचारों से वंचित रहा। इधर आपको यह जानकर प्रसन्नता भी होगी कि मैं एक राष्ट्रीय स्तर की एक हिन्दी मासिक पत्रिका का प्रकाशन बेंगलूर से करने जा रहा हूं। विजया दशमी पर अक्टूबर का अंक (प्रवेशांक) लांच होगा। पत्रिका का नाम 'भारतीय ओपिनियन' है। इस पत्रिका में एक परिचर्चा में शामिल होने के लिए आपके विचार आमंत्रित करता हूं। मुझे प्रसन्नता होगी अगर आप अपने विचार एवं फोटो भेजेंगे।


विषय- कैसे हों राजनेता, कैसी हो राजनीति?

हम भारतवासियों को बड़ा गर्व होता है कि हम सबसे बड़े लोकतंत्र में रह रहे हैं परन्तु यह भी कटु सत्य है कि धीरे धीरे हमारे देश की राजनीति और राजनेताओं के स्तर में इतनी गिरावट आ चुकी है कि जनता न केवल इस स्थिति से उकता गई है बल्कि भले लोग तो घृणा सी करने लगे हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि आपकी नजर में हमारी राजनीति कैसी होनी चाहिए, राजनेता कैसे होने चाहिएं? क्या आपको लगता है कि जैसा आप सोचते हैं, वैसा संभव है? आज के जो हालात हैं उसके पीछे मूल कारण क्या हैं? इस स्थिति के लिए क्या जनता जिम्मेदार नहीं है? स्थिति में सुधार के उपाय बताएंगे?

आपके विचार (लगभग 200 शब्दों तक-Upto 5th September) हमें लिख भेजें। साथ ही अपना फोटो भी भिजवाएं। भारतीय ओपिनियन पत्रिका में आपकी राय प्रकाशित कर हमें प्रसन्नता होगी।

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