प्यार का रंग लगा देना

राजनीति पर संपादकीय और अन्य लेख लिखते-लिखते जब मन करता है कि कभी-कभी कुछ इससे अलग कोशिश भी करनी चाहिए तब ऐसी कोई रचना लिखी जाती है।

उनकी मोहब्बत का

ऐसा वैसा ना सिला देना
जरा प्यार से मना करना
गुस्से में ना ठुकरा देना।

होली के दिन किसी फसाद में

जिन्होंने खोया कोई परिजन
उनके बदरंग चेहरों पर कोई
प्यार का रंग लगा देना।

लड़ने वाले तो यहां
बहुत मिल जाएंगे मेरे दोस्त
दो दुश्मनों के बीच की दूरियां
मिटा सको तो मिटा देना।

समाजसेवी होने का दंभ
तो भरते हैं बहुत लोग
मगर उन्हें भी कठिन लगता है
किसी भूखे को रोटी खिला देना।

अपने बच्चे के लिए रोज

खरीदते हो ढेरों खिलौने
एक खिलौना किसी
गरीब के बच्चे को दिला देना।
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अधजल गगरी छलकत जाय

ज्ञानी कितनी गहरी बात कहते हैं। 'अधजल गगरी छलकत जाय' यह किसी ज्ञानी के कथन से ही प्रचलित हुई कहावत है। कितनी ठोस बात कही है कि घडा आधा भरा हुआ हो तो आवाज करता है, पानी छलक कर गिर जाता है और पूरा भरा हो तो बिल्कुल भी न आवाज करता है, न छलकता है। पूरे भरे घडे में गहनता आ जाती है। छिछलापन नहीं रहता। मतलब साफ है, छिछलापन आवाज करता है, गहराई में शांति होती है।
पहाडाें से, चट्टानों से गुजरती हुई नदी खूब आवाज करती है क्योंकि छिछली होती है, गहराई नहीं होती, कंकड-पत्थरों से टकराते हुए, रास्ता बनाते हुए चलती है, आवाज करते हुए चलती है। वही नदी जब मैदानी क्षेत्र में होती है, दूर-दूर तक समतल क्षेत्र होता है, पानी गहरा होता है तो नदी उदास मालूम पडती है, उसकी गति मंथर हो जाती है। आवाज नहीं होती। लहरों का पता नहीं चलता। लहरें उछल-कूद नहीं करतीं। नदी छिछली होती है तो शोरगुल करती है। शोरगुल हमेशा उथलेपन का सबूत है।
यही बात व्यक्ति पर भी लागू होती है। ज्ञानी व्यक्ति बडबोला नहीं होता। ज्यादा नहीं बोलता। व्यर्थ नहीं बोलता। तोल-तोल कर बोलता है। बार-बार कुरेद कर पूछने पर भी उतना ही बोलेगा जितने की आवश्यकता है। यह गहन अनुभूति के कारण होता है, उसकी विद्वता के कारण होता है। दिखने में वह उदास दिखाई देगा क्योंकि उसमें अनावश्यक चंचलता नहीं होती। नदी जैसी गहराई होती है। अंदर से गहरापन होता है। बाहरी छिछलापन नहीं होता। उसे यह बताने की जरूरत नहीं होती कि वह कितना विद्वान है, कितना गुणी है, कितना भला है, कितना परोपकारी है, कितना सदाचारी है। उसके गुण उसके व्यवहार में, उसके आचरण में, उसकी वाणी में स्पष्ट झलकते हैं। ऐसे व्यक्ति को किसी के प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं होती, किसी के प्रचार की जरूरत नहीं होती। ऐसे लोगों के आचरण की सौरभ सर्वत्र बिना किसी विशेष प्रयास के स्वत: फैल जाती है।
जो लोग अंदर से खोखले होते हैं वे अपने मुंह मियां मिट्ठू बनते हैं। उनके लिए यह जरूरी भी है। जिनका प्रचार दूसरे नहीं करते हों, जिनके लिए लोग कुछ नहीं कहते या कहते भी हैं तो अच्छा नहीं कहते, उनको अपना प्रचार खुद करना पडता है। अपने गुणगान भी खुद के श्रीमुख से करना उनके लिए जरूरी हो जाता है। ऐसे लोग छलकते ज्यादा हैं क्योंकि अंदर से अधूरे होते हैं। आधे भरे होते हैं, उथले होते हैं, छिछले होते हैं। छिछलापन ही आवाज करता है, शोरगुल करता है।
मैं गहराई या छिछलेपन की बात केवल ज्ञान, धर्म या आध्यात्म के लिए नहीं कर रहा हूं, हर क्षेत्र में ऐसा होता है। आपको अनेक समाजसेवी मिलेंगे जो अपनी गतिविधियों का स्वयं ही बखान करेंगे। समाजसेवा के क्षेत्र में उन्होंने क्या-क्या किया, इसकी पूरी सूची आपके जेहन में पेल देंगे और साथ में मुस्कुराहट के साथ यह भी कहते जाएंगे कि वे करते तो बहुत से काम हैं, पूरा जीवन ही समाज की भलाई में लगा रखा है परंतु किसी को बताना नहीं चाहते। वे कहेंगे कि वे काम करने में विश्वास करते हैं, बात करने में नहीं, प्रचार करने में नहीं। यह कहते हुए वे आपको अपने जीवन के सारे 'समाजसेवी कार्यों' का आंखों देखा हाल सुना देंगे। अब तो ऐसे समाजसेवी भी उभर आए हैं जो 'दानदाता-कम-समाजसेवी' के रूप में अपनी छवि बनाने के प्रयासों में लगे हैं। यहां मेरा तात्पर्य अंग्रेजी के डोनर-कम-सोशलवर्कर' से है।
ऐसे समाजसेवी सज्जनों से आप बात करके देखिए, इतनी डींगें हांकते मिलेंगे कि आपका माथा चकरा जाए। राजनीति से लेकर धर्म तक को अपनी मुट्ठी में बताएंगे। क्षेत्र का पार्षद भी भले इन्हें नहीं जानता हो परंतु मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या किसी पार्टी विशेष के आलाकमान तक अपनी सीधी पहुंच का दावा करने में ऐसे लोगों को कोई झिझक नहीं होती। तथाकथित अतिविशिष्ट व्यक्तियों के साथ खिंचवाए गए अपने चित्रों का एलबम आपके हाथों में यह कहकर देखने के लिए थमाएंगे कि न चाहते हुए भी लोग इनको विशेष अतिथि के रूप में आमंत्रित करते हैं, इस कारण वे व्यस्त भी रहते हैं। वे किस-किस ट्रस्ट से जुडे हैं, किस-किस संस्था में पदाधिकारी हैं, किस-किस संगठन से पहले जुडे रहे हैं, सबका आपको पूरा विवरण बताएंगे।
आजकल अपने धन से लेकर दान-पुण्य, समाजसेवा, आध्यात्मिक व धार्मिक रुचि एवं बौध्दिक क्षमता का बढ-चढक़र बखान करने वालों की कोई कमी नहीं है बल्कि देखा जाए तो ऐसे लोगों की संख्या में इतनी तेजी से बढाेतरी हो रही है कि कभी-कभी ऐसीर् ईष्या होने लगती है कि हमारे देश का विकास इस गति से क्यों नहीं हो पाता। परंतु फिर एक संतोष भी होता है कि देश का विकास इतना खोखला होने से तो धीमी गति से होना ज्यादा अच्छा है।
आजकल पत्रकार बिरादरी में भी ऐसे लोग घुस आए हैं। अधकचरा ज्ञान लिए, अपने आपको और अपने अखबार को 'बडा' बताने वाले ऐसे पत्रकार या तो मस्का लगाकर, जी हजूरी कर या फिर डरा-धमकाकर समाचारों के एवज में पैसा ऐंठने का काम करते हैं। ऊपर से 'ज्यादा होंसियारी' की बातें करते हैं। बुध्दिजीवियों की जमात में भी आधी भरी गगरियां प्रविष्ट कर गई हैं। ऐसे कवि-साहित्यकार अपना ढोल पीट रहे हैं कि जैसे उनके कद जितना कोई कैसे पहुंच पाएगा। छलक रहे हैं। आवाज कर रहे हैं। ओछी बातें करते हैं। उथलापन है उनमें। गहराई नहीं है। अंदर से खोखले, आधे भरे ऐसे समाजसेवी, ऐसे दानदाता, ऐसे पत्रकार, ऐसे बुध्दिजीवी, ऐसे धर्मप्रेमी छलकते ज्यादा हैं, बोलते ज्यादा हैं, प्रदर्शन ज्यादा करते हैं, दिखाते अधिक हैं क्योंकि यह सब अधजल गगरी छलकत जाय के समान होते हैं। जो सच्चे समाजसेवी हैं, परमार्थ के लिए सच्चे हृदय से दान करते हैं, परोपकार में अपना समय लगाते हैं उनको अपना बखान करने की जरूरत नहीं होती। लोग उनके पीछे-पीछे दौडते हैं, उनको अपने मन की आंखों पर सम्मानजनक स्थान देते हैं, उनके सत्कार्यों की भीनी-भीनी सुगन्ध अपने आप फैलती है। उनके पुण्य का प्रमाण उनके दान से लाभान्वित होने वाले जरूरतमंद अपनी दुआओं से देते हैं। वे गली-कूचों पर, प्रीतिभोज समारोहों में, धार्मिक कार्यक्रमों में अपने क्रियाकलापों का स्वयं बखान करते नहीं फिरते। उनमें गहराई होती है और गहराई में उथलापन नहीं होता। काश, यह गहराई सभी में विकसित होती।
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किधर जाओगे ?


इंसान को इंसान समझो तो कुछ कर जाओगे
नहीं तो जब मौत आएगी दरवाजे पर,
डर जाओगे

दूसरों की राहों में, ऐ कांटे बिछाने वालो
कभी उन्हीं पर चलना पड़ा,
तो किधर जाओगे?

चापलूसों के चढ़ाए, ना चढ़ो चने के पेड़ पर
मुगालते में ही बने रहोगे कि,
खुद उतर जाओगे

उनकी देखकर खुशियां, जलकर होते रहे गर दुखी
तो यह मत भूलना कि,
यों ही बेमोत मर जाओगे

भगवान ने दी हैं खुशियां, तो लग जाओ बांटने में
देखना तुम खुद भी, खुशियों से भर जाओगे।
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मेरा यह शहर


कर्नाटक की राजधानी दो-तीन दशक पूर्व फूलों का शहर, बगीचों का शहर, पेंशनर्स पैराडाइज जैसे अलंकरणों से सुशोभित था। वर्ष दर वर्ष बदल रहा है यह शहर। आईटी उद्योग की राजधानी माने जाने वाले इस शहर ने विकास के कई आयाम छूए हैं तो कुछ हद तक प्राकृतिक सौन्दर्य और बहुत कुछ खोया भी है। अपनी अनुभूतियों को इस कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास है।


उन दिनों मेरे शहर की
अलग ही कहानी थी
सुबह और शाम ही क्या
दोपहर भी होती सुहानी थी
जब-तब बादल घुमड़ आते थे
शाम को अक्सर बारिश लाते थे
मीठी सुहानी सर्दी
रोज गुदगुदाया करती थी
दोपहर में भी घर से निकलते
ठंडी-ठंडी हवा आया करती थी
बाग-बगीचों की तो बात ही क्या
सड़कें भी नहाई-नहाई सी लगती थीं
शांति और सुंदरता पसरी रहती थी आठों पहर
मगर पहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर

अब बसों में है धक्का-मुक्की
सड़कों पर रेलमपेल है
विकासशील शहर के विकास का
कैसा अनूठा यह खेल है
बगीचे भी अब बाजार से लगते हैं
शहरीपन की ऐसी चली है हवा
कि अपने ही अपनों को ठगते हैं
बरसात तो अब भी आती है
मगर खुशी नहीं, तबाही लाती है
बेतरतीब हमने ऊंची-ऊंची
अट्टालिकाएं खड़ी कर ली हैं
एक-एक घर में तीन-तीन
मोटर गाड़ियां भर ली हैं
खुद हम फैला रहे आसमान में घुआं
खुद के लिए खोद रहे अपने हाथों कुआं
75 लाख लोगों के 35 लाख वाहन
दिन-रात वातावरण में घोल रहे हैं जहर,
पहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर।

कमाने की दौड़ में हम मशगूल हो गए
प्यार-मोहब्बत, दोस्ती, न जाने कहां खो गए
कभी पड़ौसी, पड़ौसी के काम आया करते थे
मौत-मरघट पर ढाढस बंधाया करते थे
अब तो पड़ौसी ही क्या, सगा हो भाई
तब भी रिश्ते की , दे नहीं सकते दुहाई
होड़ ऐसी मच गई है कि
हम तो आगे बढ़ रहे हैं-
असल में जो जिंदगी है वह तो गई ठहर,
पहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर।
सभ्यता और संस्कृति का
अनूठा था संगम यहां
संतोष कमाने में था, संतोष ही गंवाने में
मगर बदल गया सब, आज के जमाने में
श्रम और समय अब भी, लगता है कमाने में
पर भ्रम ऐसा पाले हुए, जैसे लगे हैं जुटाने में
असल में लगे हुए हैं, सुख चैन लुटाने में
हरी-भरी सड़कें थीं, हरे-भरे मोहल्ले थे
हरियाली खो गई, मॉल हमने लगा लिए
फ्लाई आवेर, अंडरब्रिज, ग्रेड सेपरेटर बना दिए
गंदे पानी के नालों पर भी, भवन अब खड़े किए
पेड़ सब काट डाले, प्रकृति के दुश्मन हम
पर्यावरण प्रेमी होने का, भरते रहते फिर भी दम
बाज अब भी आते नहीं ढा रहे दिन-रात कहर,
पहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर।

खुशियों का इजहार कभी
पटाखों से किया करते थे
शांति सद्भाव के लिए
शहर की मिसाल दिया करते थे
अमन के दुश्मन अब पहुंच गए यहां भी
घोल रहे दो दिलों में दुश्मनी का कड़वा जहर
बम के धमाकों से दहल गया शहरापहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर।
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फूलों के संसार की सैर करना न भूल जाएं






बेंगलूर शहर का बोटनिकल गार्डन 'लालबाग' केवल सुबह की सैर करने वालों के लिए ही खास नहीं है और न ही कभी कभार वहां के हरे-भरे पेड़ों के झुरमुट के नीचे बैठ सुस्ताने वालों के लिए। इन दिनों तो हर कोई एक बार लालबाग की सैर के लिए अपने व्यस्त समय में से थोड़ा समय निकाल ही रहा है क्योंकि लालबाग में लगी है राष्ट्रीय स्तर की एक पुष्प प्रदर्शनी। स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लगी यह प्रदर्शनी अत्यन्त मनमोहक है। बेंगलूर में रहते हुए कोई प्रकृति प्रेमी इस प्रदर्शनी का अवलोकन नहीं कर पाए तो उसके मन में एक कशिश ही रहेगी। प्रदर्शनी में लगभग 300 विविध प्रजातियों के पुष्प और लगभग 400 वैराइटियों के कैक्टस प्रदर्शित हैं। प्रदर्शनी को मुख्यतः तीन भागों में बांटा जा सकता है-पुष्प वाटिका पेवेलियन आर्गेनिक फार्मिंग पर केन्द्रित है जहां बहुरंगी मनोहारी पुष्प तो हैं ही, फलों और सब्जियों की कलात्मक कार्विंग भी दर्शनीय है। दूसरे, ऐतिहासिक धरोहरों पर केन्द्रित प्रभाग में विजयनगर साम्राज्य की याद दिलाते ऐतिहासिक महत्त्व के हम्पी स्टोन चेरियट पर से आंखें नहीं हटतीं। दो लाख से भी ज्यादा फूलों से इस रथ को हूबहू आकृति देने का प्रयास किया गया है। फूलों से ही तुंगभद्रा नदी के बहने का दृश्य प्रस्तुत किया गया है। इस सेक्सन में हर कलाकृति नयनाभिराम है। तीसरे, कैक्टस तो इतनी अद्भुत प्रजातियों में देखने को मिलेंगे कि आप दांतों तले अंगुली दबाए बिना नहीं रह सकते। बगीचे के ग्लास हाउस में जब फूलों को सजाया जाता है तो सोने में सुहागे का सा काम होता हैक्योंकि ग्लास हाउस का सौन्दर्य फूलों की सुन्दरता में चार चांद लगा देता है। प्रदर्शनी में फूलों से एक वीणा बनाई गई है तो फलों और सब्जियों से बने भगवान गणेश भी कम आकर्षक नहीं हैं। छोटे-छोटे बोन्साई पौधों पर से तो नजरें हटाने को मन ही नहीं करता। दूर दूर तक रंग बिरंगे पुष्पों से सजे ग्लास हाउस के बीच खड़े होकर जब आसपास के नजारे का अवलोकन करते हैं तो लगता है फूलों की किसी नई दुनिया में आ गए हैं। बच्चों, बड़ों सबके देखने लायक यह पुष्प प्रदर्शनी 17 अगस्त तक खुली है। रोज प्रातः 9 बजे से शाम 6 बजे तक इन नजारों को अपनी आंखों में कैद किया जा सकता है।
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लकीर पीटने की आदत

सांप काटकर निकल जाता है और हम लकीर पर लठ चलाते रहते हैं। हम भारतवासियों की आदत ही ऐसी हो गई है। अगर ऐसा नहीं होता तो बार-बार सौ करोड़ भारतवासियों पर चंद सिरफिरे लोगों द्वारा चलाया जा रहा आतंकवाद हावी कैसे हो जाता? भारत के सिरमौर जम्मू-कश्मीर में दशकों से आतंकवाद की आग लगी हुई है परन्तु राजनीतिक स्वार्थों के चलते विभिन्न राजनीतिक दल अपने अपने नजरिये से घाटी के समीकरण बनाते हैं और कुल मिलाकर इसे पाकिस्तान की करततू बताते हुए आतंकवाद के खात्मे की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते दिखाई देते हैं।
घाटी में तो आतंकवाद की आग बुझी ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में भी आतंकवादियों ने अपने पैर फैलाने शुरू कर दिए हैं। देश-विदेश में पर्यटन के लिए मशहूर राजस्थान की राजधानी जयपुर, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में अपना एक स्थान बना चुके कर्नाटक के शहर बेंगलूर को आतंकवादियों ने बम धमाकों के लिए इसलिए चुना क्योंकि वे देश की अर्थ व्यवस्था पर भी हमला करना चाहते हैं। यही कारण था कि उनके निशाने पर सूरत भी था। यह तो गनीमत रही कि वहां दो दर्जन जिंदा बम बरामद कर लिए गए और उनको फूटने से पहले निरस्त कर दिया गया। सूरत हीरा उद्योग का एक प्रमुख केन्द्र है। गुजरात में तो अभी भी सांप्रदायिक दंगों के घाव पूरी तरह सूखे नहीं हैं। परन्तु नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में यह प्रदेश विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ रहा है, उसे पटरी से उतारने और सांप्रदायिक सौहार्द को मटियामेट करने की बदनीयत से आतंकवादियों ने अहमदबाद को बम धमाकों के लिए चुना। बेंगलूर में तो धमाकों से एक महिला की मृत्यु हुई परन्तु जान-माल का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। लगता है मानो अहमदाबाद के बमों की टेस्टिंग के लिए बेंगलूर को चुना गया हो। जो कुछ भी हो, जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद और सूरत में आतंकवादियों ने जो कर दिखाया है वह पूरे देश की सुरक्षा व्यवस्था को एक खुली चुनौती है। अब आतंकवाद केवल घाटी तक सीमित नहीं रहा है बल्कि उसने पूरे देश के प्रशासनिक ढांचे, सुरक्षा व्यवस्था और कानून को ठेंगा दिखाते हुए यह चैलेन्ज कर दिया है कि 'रोक सको तो रोक लो।' अब यह इस देश पर है कि वह इस चुनौती को कितनी गंभीरता से लेता हैऔर उससे कैसे निपटता है।
जब-जब भी आतंकवादी वारदातें होती हैं तब-तब नेताओं द्वारा घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं। कमांडो की एक टुकड़ी से घिरे हमारे नेता आतंकवादियों को ललकारने के लहजे में कहते हैं कि गुनहगारों को बख्सा नहीं जाएगा। एक के बाद एक नेता, चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के, घटना स्थलों का दौरा करते हैं, अस्पतालों में घायलों से मिलते हैं और मृतकों के परिवार वालों के लिए कुछ लाख के मुआवजे की घोषणा कर देते हैं। इसके बाद बस वे यह इंतजार करते हैं कि अगर गुंजाइश हो तो विरोधी दल पर ऐसी कार्रवाई के हालात पैदा करने की तोहमत मढ दी जाए। अगर केन्द्र और राज्य में अलग-अलग सरकारें हो तो उनके लिए यह काम और आसान हो जाता है। इसके बाद गड़े मुर्दे उखाड़ने का सिलसिला प्रारंभ होता है। किस दल की सरकार, कब, किस प्रकार ऐसे हालात से निपटने में नाकाम रही, इसका खुलासा किया जाता है। एक पार्टी का प्रवक्ता दूसरी पार्टी के प्रवक्ता से टीवी चैनलों पर ऐसे वाकयुध्द करता दिखाई देता है मानो इसी के जरिए वे आतंकवाद से भी लड़ लेंगे और उसका सफाया करने में कामयाब हो जाएंगे। यह है ऐसे हादसों के बाद की असली तस्वीर । जब-जब भी मौका मिलता है, हमारे देश का एक वर्ग अमेरिका की खुलकर मुखालफत करता है। कई राजनीतिक पार्टियां भी अमेरिका पर अपनी बंदूक ताने ही रखती हैं परन्तु अमेरिका की अच्छाइयां ग्रहण करने की पहल कोई नहीं करना चाहता। अमेरिका ने 7/11 की वारदात के बाद एकजुट होकर हर स्तर पर जिस तरह से आतंकवाद का मुकाबला किया, क्या वह जज्बा अनुसरण करने योग्य नहीं है?लेकिन अनुसरण करे कौन? जरूरत किसे है? हमारे नेता तो हर वक्त सुरक्षा घेरे में रहते हैं। अगर जान जोखिम में है तो वह आम आदमी की है। यदि गहराई से चिंतन करें तो यह स्पष्ट दिखाई देगा कि आतंकवाद से निपटने के लिए न तो हमारा कानून सक्षम है और न ही राजनीतिक इच्छा शक्ति। इसके साथ ही घिसे-पिटे उपकरणों एवं जंग लगी जांच प्रणालियों से लैस हमारे खुफिया और पुलिस तंत्र, ऊपर से उसे भी काम करने की पूरी स्वतंत्रता नहीं मिलती। ऐसे हालातों में आतंकवाद पर काबू पाया कैसे जाए?
इतना ही नहीं, देश के बजट में सुरक्षा पर जो खर्च के प्रावधान है वे भी पर्याप्त नहीं हैं, यही कारण है कि बड़ी-बड़ी वारदातों को अंजाम देने में आतंकवादी कामयाब हो जाते हैं। आतंकवादियों के पास अति आधुनिक हथियार होते हैं। हम नए नए हथियारों एवं सुरक्षा उपरकणों पर खर्च करने की जरूरत नहीं समझते। यह भी एक विडंबना है। उनका संचार तंत्र हमारी सुरक्षा एजेंसियों से भी ज्यादा हाई-फाई होता है। उनके पास अकूत धन है जो हमारे पुलिस तथा प्रशासनिक तंत्र के भ्रष्ट कर्मचारियों और अधिकारियों को ललचाने के लिए पर्याप्त होता है। वे घटना को अंजाम देकर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। अगर कभी पकड़ में आ भी जाते हैं तो कानूनी दांव पेंचों से सबूतों के अभाव में सजा से बच जाते हैं। जिन्हें सजा सुना दी जाती है उन्हें भी राजनीतिक कारणों से सजा नहीं मिल पाती। किसी न किसी राजनैतिक, सांप्रदायिक या राजनयिक कारणों से ऐसे मामले लंबित पड़े रहते हैं।
स्वाभाविक है कि जब खुलेआम आतंकी वारदात को अंजाम देने वाले जेल की सलाखों के पीछे जाने से बच जाएंगे तो फिर उनके हौसले बुलंद क्यों नहीं होंगे? हमारे यहां आपराधिक जांच के लिए न तो संबंधित एजेंसियों के पास अधुनातन उपकरण हैं और न ही देश में पर्याप्त ऐसी प्रयोग शालाएं हैं। जहां गहन जांच के आवश्यक उपकरण हों। दूसरी तरफ कानून को और सख्त बनाने की बात की जाए तो हमारे यहां राजनीतिक अड़ंगेबाजी शुरू हो जाती है। इसका फायदा अपराधियों को मिलता है। जरूरत आज इस बात की है कि आतंकवादी घटनाओं को राष्ट्रीय संकट के रूप में लिया जाए और सारे दल एकजुट होकर इससे लोहा लेने की ठान लें। फिर आतंकवाद किस खेत की मूली है? देश के नेताओं की राजनीतिक इच्छा शक्ति से ज्यादा मजबूत तो आतंकवादियों का हौसला है जो बार-बार भारत जैसी विशाल शक्ति को ललकारने में भी गुरेज नहीं करते। आतंकवादी हमारी पुलिस और खुफिया एजेंसियों से ज्यादा चुस्त, चालाक और आधुनिक तंत्र से सुसज्ज्ाित हैं जबकि हमारे देश में सिस्टम के विभिन्न स्तरों पर भ्रष्ट, अक्षम और यहां तक कि देशद्रोही मानसिकता के लोग भी आसानी से मिल जाते हैं, अन्यथा अमेरिका और इजरायल ने जिस प्रकार से आतंकवाद की कमर तोड़ दी, क्या हम ऐसा नहीं कर सकते थे? एक तरफ आतंवादी संगठित हो रहे हैं। विभिन्न आतंकी संगठन एक दूसरे की मदद करते हैं। उनमें तालमेल दिखाई देता है जबकि दूसरी तरफ वोट बैंक की राजनीति, धर्म-समुदाय को लेकर व्यक्ति व्यक्ति में भेद पैदा करने को आमादा हमारे राजनेता बारूद के ढेर पर बैठे भारत की वास्तविक चिंता कब करेंगे, यही एक विचारणीय प्रश्न बना हुआ है। आज राजनीतिक सौदेबाजी अहम हो गई हैतथा देश की सुरक्षा हाशिए पर चली गई है। ऐसे में अब आम आदमी को जागना होगा तथा देश के सभी राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाना होगा जिससे कि देश की सुरक्षा को प्राथमिकता सूची में सर्वोच्च स्थान पर रखकर आम नागरिक की सुरक्षा एवं राष्ट्रीय अखंडता बरकरार रखने के उपाय किए जा सकें। आतंकवादी अपनी अगली वारदात को अंजाम दें, उसके पहले सोचने-समझने और उपाय खोजने की जरूरत है। सांप काटकर लौट जाए और बाद में हम लकीर पीटते रहें, उससे क्या लाभ है?
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