मेरा यह शहर

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  • Monday 18 August 2008
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  • श्रीकांत पाराशर
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  • कर्नाटक की राजधानी दो-तीन दशक पूर्व फूलों का शहर, बगीचों का शहर, पेंशनर्स पैराडाइज जैसे अलंकरणों से सुशोभित था। वर्ष दर वर्ष बदल रहा है यह शहर। आईटी उद्योग की राजधानी माने जाने वाले इस शहर ने विकास के कई आयाम छूए हैं तो कुछ हद तक प्राकृतिक सौन्दर्य और बहुत कुछ खोया भी है। अपनी अनुभूतियों को इस कविता के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयास है।


    उन दिनों मेरे शहर की
    अलग ही कहानी थी
    सुबह और शाम ही क्या
    दोपहर भी होती सुहानी थी
    जब-तब बादल घुमड़ आते थे
    शाम को अक्सर बारिश लाते थे
    मीठी सुहानी सर्दी
    रोज गुदगुदाया करती थी
    दोपहर में भी घर से निकलते
    ठंडी-ठंडी हवा आया करती थी
    बाग-बगीचों की तो बात ही क्या
    सड़कें भी नहाई-नहाई सी लगती थीं
    शांति और सुंदरता पसरी रहती थी आठों पहर
    मगर पहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर

    अब बसों में है धक्का-मुक्की
    सड़कों पर रेलमपेल है
    विकासशील शहर के विकास का
    कैसा अनूठा यह खेल है
    बगीचे भी अब बाजार से लगते हैं
    शहरीपन की ऐसी चली है हवा
    कि अपने ही अपनों को ठगते हैं
    बरसात तो अब भी आती है
    मगर खुशी नहीं, तबाही लाती है
    बेतरतीब हमने ऊंची-ऊंची
    अट्टालिकाएं खड़ी कर ली हैं
    एक-एक घर में तीन-तीन
    मोटर गाड़ियां भर ली हैं
    खुद हम फैला रहे आसमान में घुआं
    खुद के लिए खोद रहे अपने हाथों कुआं
    75 लाख लोगों के 35 लाख वाहन
    दिन-रात वातावरण में घोल रहे हैं जहर,
    पहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर।

    कमाने की दौड़ में हम मशगूल हो गए
    प्यार-मोहब्बत, दोस्ती, न जाने कहां खो गए
    कभी पड़ौसी, पड़ौसी के काम आया करते थे
    मौत-मरघट पर ढाढस बंधाया करते थे
    अब तो पड़ौसी ही क्या, सगा हो भाई
    तब भी रिश्ते की , दे नहीं सकते दुहाई
    होड़ ऐसी मच गई है कि
    हम तो आगे बढ़ रहे हैं-
    असल में जो जिंदगी है वह तो गई ठहर,
    पहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर।
    सभ्यता और संस्कृति का
    अनूठा था संगम यहां
    संतोष कमाने में था, संतोष ही गंवाने में
    मगर बदल गया सब, आज के जमाने में
    श्रम और समय अब भी, लगता है कमाने में
    पर भ्रम ऐसा पाले हुए, जैसे लगे हैं जुटाने में
    असल में लगे हुए हैं, सुख चैन लुटाने में
    हरी-भरी सड़कें थीं, हरे-भरे मोहल्ले थे
    हरियाली खो गई, मॉल हमने लगा लिए
    फ्लाई आवेर, अंडरब्रिज, ग्रेड सेपरेटर बना दिए
    गंदे पानी के नालों पर भी, भवन अब खड़े किए
    पेड़ सब काट डाले, प्रकृति के दुश्मन हम
    पर्यावरण प्रेमी होने का, भरते रहते फिर भी दम
    बाज अब भी आते नहीं ढा रहे दिन-रात कहर,
    पहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर।

    खुशियों का इजहार कभी
    पटाखों से किया करते थे
    शांति सद्भाव के लिए
    शहर की मिसाल दिया करते थे
    अमन के दुश्मन अब पहुंच गए यहां भी
    घोल रहे दो दिलों में दुश्मनी का कड़वा जहर
    बम के धमाकों से दहल गया शहरापहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर।

    5 comments:

    mamta said...

    अच्छा लिखा है।धीरे-धीरे हर शहर मे अब यही हाल होता जा रहा है।

    Rajesh Roshan said...

    एकदम सही कह रही हैं ममता जी

    Anil Pusadkar said...

    sahi likha.badhai

    Udan Tashtari said...

    यथार्थ अभिव्यक्ति है ...

    रश्मि प्रभा... said...

    पहले जैसा नहीं रहा, अब मेरा यह शहर।
    ..........
    atit aur vartmaan ka fark bakhubi bataya