बहती गंगा (कोसी) में हाथ धो लेते हैं अखबार भी
Posted on Tuesday, 2 September 2008 by श्रीकांत पाराशर in
बिहार में आई बाढ़ पर राजनेता तो राजनीति करेंगे ही, यह उनके स्वभाव में है परन्तु छोटे-बड़े अखबार भी इस मौके का लाभ उठाने से नहीं चूकने वाले। मैंने तो यहां तक देखा है कि अखबार वाले दूसरों को ईमानदारी, नैतिकता, सच्चाई और न जाने कैसी कैसी अच्छी सीख देते दिखाई देते हैं परन्तु उनमें से भी बहुत से अखबार बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं। जब ऐसी कोई आपदा आती है तब कुछ अखबार प्रारंभ में एक छोटी-सी राशि 50 हजार से 5 लाख रुपए (अखबार की सामर्थ्य और स्टैन्डर्ड के अनुसार) तक का अपनी ओर से योगदान घोषित कर एक फंड बना देते हैं। यह फंड उस विशेष त्रासदी से पीड़ितों की मदद के लिए होता है। पाठकों में भी कोई हजारपति होता है तो कोई करोड़पति। अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार लोग (पाठक) आर्थिक सहयोग देना शुरू करते हैं। सिलसिला शुरू होता है तो थमता नहीं। परन्तु कुछ अच्छी नीयत वाले अखबार तो सेवा का काम भी करते हैं और सलीके से करते हैं। उनकी नीयत ठीक होती है इसलिए जरूरतमंदों तक अपेक्षित सहयोग पहुंच जाता है। कुछ ऐसे होते हैं जो संग्रह तो ज्यादा करते हैं और जल्दी करते हैं मगर उस राशि का वितरण धीरे-धीरे और थोड़ा थोड़ा करते हैं। इससे होता यह है कि काफी राशि उनके ट्रस्ट या खाते में इकट्ठी हो जाती है और पड़ी रहती है। त्रासदी कोई भी हो, थोड़े दिनों बाद उसका ज्वार उतरने लगता है, सहानुभूति का स्तर कम होने लगता है, जन-जीवन सामान्य होने लगता है। बात आई-गई हो जाती है। अखबारों द्वारा संचालित कथित ट्रस्टों और विशेष कोषों में अवितरित धन पड़ा रह जाता है, जिसे बाद में अन्य मदों में ठिकाने लगाया जाता है। आजकल आयकर विभाग ट्रस्टों पर खास नजर रखने लगा है इसलिए एक निश्चित अवधि में धन तो खर्च करना ही होता है परन्तु ट्रस्ट किस मद में, किसकी सहायता के लिए, कितनी राशि खर्च करता है, उस पर कोई ज्यादा सख्त दिशा निर्देश या पाबंदियां नहीं हैं। जब कारगिल युध्द हुआ था उस समय तो न जाने कितने ही अखबार वाले उसमें तर गए थे। कोई बड़ा धूर्त था तो उसने बड़ा हाथ मारा और किसी की पोटी (सामर्थ्य) ज्यादा नहीं थी तो उसने कम में संतोष किया परन्तु ऐसा बहुत से अखबारों ने किया। जल्दी जल्दी दान एकत्र किया, धीरे धीरे बांटा और कुछ समय बाद में चुप बैठ गए। ऐसे एक बड़ा हिस्सा बचा लिया। छोटे बड़े न जाने कितने अखबारों ने ऐसा किया। अखबार होने का फायदा यह है कि उसे वाहवाही भी मिलती है कि उसने अपनी ओर से कुछ राशि देकर पहल की, प्रचार भी खूब मिलता है तथा व्यवस्था में लूप हॉल्स का फायदा भी वे लोग उठा लेते हैं, जिन्हें उठाना आता है।ऐसा नहीं है कि हर बड़ा अखबार ईमानदार और हर छोटा अखबार बेईमान होता है। ना ही हर बड़ा अखबार बदनीयती से धन संग्रह करता हैऔर ना ही हर छोटा अखबार दूध का धुला होता है। अच्छे और खराब में बड़े और छोटे का कोई मापदंड नहीं है। यह सब कुछ नीयत पर निर्भर करता है, संस्कारों पर निर्भर करता है। जो ईमानदार होते हैं वे पूर्ण ईमानदार होते हैं। जो सेवा करना चाहते हैं वे अपने स्तर पर किसी भी तरह से कर सकते हैं। जिन्हें मौके का फायदा उठाना है वह चाहे अखबार ही क्यों न हो, उठा लेता है। गरीब आदमी ईमानदारी से काम करें तो उस पर भी शक होता है और बड़ा धनी व्यक्त बड़ा घपला करे तब भी यों लगता है कि उसे ऐसा करने की क्या जरूरत है। उस पर शक नहीं होता। मदद मरने वाले भी क्या करें? अखबार सबसे सरल माध्यम दिखता है। उसमें नाम भी छपता है। बहरहाल, मैं यह सोचता हूं कि आपदा में फंसे लोगों की सहायता करनी चाहिए। परन्तु इसके लिए सही माध्यम चुनना चाहिए। अच्छे कार्यकार्यकर्ताओं वाली प्रतिष्ठित संस्था के माध्यम से अपना अर्थ सहयोग पहुंचाना चाहिए। अगर कोई अपनी टीम बनाकर खुद प्रभावित क्षेत्रों में जाए तो उसका कोई मुकाबला नहीं।
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11 comments:
bilkul theek kaha sir, jab neta ji poora poora naha rahe hon to akhbar waale kyon peeche rahen
Shrikant Ji,
Bahut kadvi sach likha hai aapne. Koshi me.n kitna bhi pani aa jaye inka chritra nahi dhul sakata.
आपने बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा उठाया है. कई बार ऐसा देखा गया है कि प्रकाशन समूह इस तरह का काम करते हैं. शायद इस बात पर अमल करते हुए कि; "माना हुआ ईमानदार अगर बेईमानी न करी तो दो कौड़ी का ईमानदार." हमारे शहर में ऐसा हुआ है. कारगिल युद्ध के दौरान शहर के सबसे बड़े मीडिया समूह ने एक फंड खोला. बाद में उस फंड से निकलने वाली राशि को लेकर तरह-तरह की बातें सामने आईं.
इस मीडिया समूह के ऑफिस में भयंकर आग लग गई. लोगों में इस बात की कानाफूसी हुई कि कारगिल लड़ाई के लिए जमा की गई राशि से सम्बंधित दस्तावेज नष्ट कर दिए गए. पता नहीं ये बात कितनी सच है लेकिन आपके द्बारा उठाया गया मुद्दा बिल्कुल सामयिक है.
पाराशर जी, बहुत अच्छा मुद्दा उठाया है आपने. यही आलम है हर तरफ़ - जब समाचार-पत्रों का यह हाल है तो बाकी जगहों का कहना ही क्या.
वाह...
बिल्कुल सही तस्वीर..
सही आकलन..
आपने जड़ तक की बात कह दी..
आपको नमन एवं बधाई.
" thanks a lot for your valuable comment. first time read your blog, and found too much pain emotion towards the sufferer of natural disaster in Bihar. we all feel that but why we are so helpless about it??"
Regards
अच्छे और खराब में बड़े और छोटे का कोई मापदंड नहीं है। यह सब कुछ नीयत पर निर्भर करता है, संस्कारों पर निर्भर करता है। जो ईमानदार होते हैं वे पूर्ण ईमानदार होते हैं। जो सेवा करना चाहते हैं वे अपने स्तर पर किसी भी तरह से कर सकते हैं।
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सही...सटीक....आपने दो-टूक
लेकिन तटस्थ मूल्यांकन किया है.
वैसे, आपका मंतव्य जीवन के हर क्षेत्र में
प्रासंगिक और दिग्दर्शक भी है.....आभार.
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
श्रीकांत जी,
मैं तो उसी क्षेत्र का निवासी हूँ और बाढ़ की विभीषिका से कई बार जूझ चुका हूँ. आपने सचमुच बेवाकी से कडुवे सच को उकेरा है.
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं.
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी ख़ुद शमां..
www.manoramsuman.blogspot.com
प्रतिष्ठित संस्था के माध्यम से अपना अर्थ सहयोग पहुंचाना चाहिए।.........
मैं इन विचारों से सहमत हूँ,पर होता कहाँ है ऐसा,
सबकुछ तितर-बितर हो जाता है,
आपका निबंध इस सन्दर्भ में सराहनीय कदम है.....
पाराशर जी,
अगली गजल की टिप्पणी के माध्यम से दिया आपका निमंत्रण स्वीकार है.
जब भी सुयोग-संयोग बने आप आदेश करें.
यदि चाहेंगें तो कुछ और मंचीय कवियों (मजमेबाजों-लतीफेबाजों से नहीं) से भी आपका परिचय कराऊंगा.
आप अपने कविसम्मेलनीय आयोजन को 'सरस्वति जागरण' के नाम से करें
श्रेष्ठ एवं स्तरीय हास्य-व्यंग्य की बानगी देखें.
शेष शुभ..
आदरणीय पाराशरजी आप सही कह रहे हैं.छिद्र हर जगह हैं बस हमें पता नहीं है.
बिहार के बाढ-पीड़ितो की मदद हेतु एन.सी.सी.केडेटस को मौका दिया जाय.
कॉलेज में अध्यापक के साथ एन.सी.सी अधिकारी भी हूँ.पूरे देश में राज्य स्तर पर एन.सी.सी. के निर्देशालय हैं. लाखों की तादाद मे सीनियर केडेट हैं.इन्हें रेग्युलर सेना के ब्रिगेडियर रेंक के अधिकारी कमांड करते है.इनकी सीधी कमांड डायरेक्टर जनरल एन.सी.सी.के पास रहती है.जो सेना मंत्रालय के अंतर्गत है.पूरे देश के सीनियर डिवीजन के छात्र-छात्रायें जो कालेजों मे पढ़ते है उन्हें ये काम सौपा जाय तो वे प्रशिक्षित होने के कारण इसे बेहतर रूप ले अंजाम दे सकते है.हर राज्य से एन.सी.सी. के केम्प यदि बिहार में लगायें जायें.रेलमंत्री लालूजी एन.सी.सी केडेटस को सेवा हेतु फ्रीपास प्रदान करें तो आसानी होगी.अभी विविध केम्प राज्यों मे चल रहे हैं.उनका खानपान का वज़ट भी लेना नहीं है मात्र स्थल बदलने की ज़रूरत है.आप अपनी पत्रकारिता की शक्तियों से सोते हुए प्रशासकों को जगा सकते है.
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