नेताओं पर लगे लगाम

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  • Thursday 31 July 2008
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  • श्रीकांत पाराशर
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  • राजनीति का छिछोरापन बढ़ता जा रहा है। जो सत्ता पर काबिज हैं वे अपनी कुर्सी बचाने के लिए और जिन्हें यह कुर्सी पानी है वे इसे हथियाने के लिए किसी भी हद तक नीचे गिरने को तैयार हैं। देश की सूचना प्रोद्योगिकी राजधानी बेंगलूर तथा विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ रहे अहमदाबाद में आतंकवादी अपने मंसूबों में कामयाब हो गए पर हमारे राजनेताओं ने इससे कोई सबक नहीं सीखा । जिस बात का डर था, उसी को हवा दी जा रही है। लग ही रहा था कि कहीं ऐसा न हो, धमाकों के लिए केन्द्र और राज्य सरकारें एक दूसरे का मुंह काला करने में जुट जाएं। इसकी शुरुआत हो गई है। राजनीतिक पार्टियों ने बम धमाकों के शिकार निर्दोषों की लाशों पर रोटियां सेंकना प्रारंभ कर दिया है।
    मैं एक टीवी चैनल पर बहस देख रहा था। एक तरफ वरिष्ठ कांग्रेसी नेता एवं प्रवक्ता शकील अहमद थे तो दूसरी ओर राजग सरकार में मंत्री रहे भाजपा नेता राजीव प्रताप रूड़ी ने मोर्चा संभाल रखा था। दोनों एक दूसरे पर आरोपों की बंदूकें ताने हुए थे। परन्तु इसमें भी ज्यादा उग्र कांग्रेस के शकील अहमद लगे जो आतंकवाद और ''सांप्रदायिक भाजपा'' को एक समान बताते बताते यहां तक कह गए कि इस देश से इन दोनों को मिटाने की जरूरत है। वे इतने गुस्से में थे कि चैनल के एंकर को ही डांटने के लहजे में बोले, देश कैसे चलता है यह आप भी पहले समझ लीजिए। फेडरल सिस्टम में केन्द्र की अपनी सीमाएं हैं। राज्य सरकारें क्यों नहीं अपने खुफिया तंत्र को मजबूत करती हैं, क्यों केन्द्र के खुफिया तंत्र पर टकटकी लगाए रहती हैं कि वहां से सूचना मिलने पर ही राज्य की पुलिस जागेगी?
    यह सही है कि देश के दो बड़े शहरों में आतंकवादी धमाके होने से संप्रग की बन आई है और केन्द्र सरकार की ढाल बनना शकील अहमद की मजबूरी है परन्तु वर्तमान में जो हालात हैं उसमें आग में घी डालने का काम करने के बजाय ऐसी स्थितियों से कैसे निपटा जाए, इस बारे में कोई ठोस कदम उठाने के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष सामूहिक प्रयास कर सकता है। ऐसा करने के बदले भाजपा को सांप्रदायिक बता कर बार-बार टीवी स्क्रीन पर यह दोहराना कि आतंकवाद और सांप्रदायिकता के समर्थकों को एक साथ इस देश से उखाड़ फैंकने की जरूरत है, भावनाओं को भड़काने का काम नहीं तो और क्या है? राजीव प्रताप रूड़ी ने कहा कि राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश की सरकारों ने आतंकवादियों और ऐसे ही अन्य खूंखार तत्वों से निटपने के लिए एक विशेष कानून का मसौदा तैयार कर केन्द्र के पास स्वीकृति के लिए भेजा था परन्तु उन्हें स्वीकृति नहीं दी गई जबकि ऐसे ही कानूनों के लिए कांग्रेस शासित राज्यों को स्वीकृति दे दी गई। ऐसी पक्षपातपूर्ण नीति केन्द्र को क्या शोभा देती है? जब ऐसे सवालों का उचित जवाब कांग्रेस के पास नहीं होता है तो वह गड़े मुर्दे उखाड़ने लगती है। कांग्रेस के नेता यहां-वहां कहते नजर आते हैं कि जिस पार्टी के नेता आतंकवादियों को विमान में बिठाकर कंधार छोड़ने चले गए थे उस पार्टी से हमें कोई सीख लेने की जरूरत नहीं है। कांग्रेस को यह कतई नहीं सोचना चाहिए कि अब तक राजस्थान, कर्नाटक और गुजरात में हुए धमाकों की नाकामी इन प्रदेशों की सरकारों पर थोप कर वह सुख से सांस ले सकेगी। कल सूरत में 18 जिंदा बम मिले जिन्हें खुश किस्मती से निष्प्रभावी करने में सफलता मिल गई। अगर आने वाले दिनों में खुदा न खास्ता किसी कांग्रेस शासित प्रदेश में कोई अनहोनी हुई तो कांग्रेस के नेता क्या चुल्लू भर पानी ढूढते मिलेंगे?
    हाल की इन घटनाओं से यह बात राजनीतिक हलकों में उठी है कि देशविरोधी गतिविधियों एवं जघन्य अपराधों से निपटने के लिए एक राष्ट्रीय स्तर पर एजेंसी होनी चाहिएजिसका तालमेल राज्य खुफिया एवं सुरक्षा एजेंसियों से हो। इस मामले में यह सुझाव भी उपयोगी है कि इस एजेंसी पर नियंत्रण सत्तासीन केन्द्र सरकार का नहीं होबल्कि यह राष्ट्रपति या उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के प्रति जवाबदेह हो ताकि इस पर राज्य सरकारें अंगुली नहीं उठा सकें। राज्यों को हमेशा डर लगा रहता है कि कहीं ऐसी किसी एजेंसी के गठन से उन पर केन्द्र की पकड़ मजबूत न हो जाए।
    बेंगलूर और अहमदाबाद के धमाकों का राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश में भाजपा भी पीछे नहीं रही है। भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने गैर जिम्मेदाराना बयान देकर यह जग जाहिर कर दिया कि ऐसे राष्ट्रीय चिंता के अवसर पर भी भाजपा मौके का लाभ उठाने के लिए कितनी लालायित है। उन्होंने हाल ही में कहा था, लोकसभा में हुए 'कैश कांड' से जनता का ध्यान हटाने के लिए बम विस्फोट कराए गए हैं। साफ है कि उनका इशारा कांग्रेस की तरफ था। उन्होंने यह दलील भी दी कि यूपीए मुस्लिम वोट बैंक को अपने पक्ष में एकजुट करना चाहता था। सुषमा स्वराज का यह बयान शर्मनाक है क्योंकि उनकी जैसी वरिष्ठ नेता के मुंह से ऐसे गैर जिम्मेदाराना वक्तव्य ओछी हरकत लगते हैं। हो सकता है कि उन्हें लगा हो ऐसा कहने से एक समुदाय विशेष के वोट, जो बिखरे बिखरे से नजर आ रहे हैं, उनका ध्रुवीकरण हो सकेगा और उनकी पार्टी को इसका लाभ मिलेगा।
    जो कुछ भी उनकी मंशा रही हो, यह समय राजनीतिक रोटियां सेंकने का नहीं है। आतंकवाद किसी एक राजनीतिक पार्टी के लिए नुकसान देह और किसी दूसरी के लिए लाभदायक नहीं हो सकता। एक दूसरे पर यह तोहमतों का दौर यहीं खत्म होना चाहिए क्योंकि ऐसे कृत्यों से आतंकवादियों का हौसला बढ़ता है तथा हमारी सुरक्षा एजेंसियों और सुरक्षा बलों का मनोबल गिरता है। इतना ही नहीं, इससे सांप्रदायिक सौहार्द का ताना-बाना भी बिखरने के कगार पर पहुंच जाता है। हिन्दू-मुस्लिम समुदायों के बीच जहां सौहार्द का सूत्र मजबूत करने की जरूरत है वहां शकील अहमद और सुषमा स्वराज जैसे नेताओं के बयान बिजली के शोर्ट-सर्किट का काम करते हैं। समय चिंगारी भड़काने का नहीं, बम के गोलों के धमाकों के बाद सुलग रही गर्म राख पर पानी डालने का है, बुझाने का है। अगर विपक्ष के सुझावों में दम हो तो उन्हें मानने के लिए सत्ता पक्ष का अहम आड़े नहीं आना चाहिए क्योंकि आतंकवाद की लड़ाई सबको मिलकर लड़नी है। जब बम फटता है तो उसके छर्रे केवल किसी पार्टी विशेष के लोगों को घायल नहीं करते, वह संपूर्ण भारतीयता को आहत करते हैं, इंसानियत को दहलाते हैं। ऐसे समय में नेताओं की बेलगाम वाणी पर लगाम लगनी चाहिए। यह काम उन पार्टियों के आलाकमान का है। उन्हें चाहिए कि अपने सहयोगी नेताओं को निर्देश दें कि आग लगाने वाली भाषा बंद करें और समझदारी का मलहम साथ में रखें।इस समय मीडिया को भी अपना दायित्व ठीक से निभाना है। हालांकि हाल में चैनलों पर जो बहस-मुबाहिसे चल रहे हैं उनमें टीवी एंकर अपनी जिम्मेदारी को समझते हैं, ऐसा दिखाई दे रहा है क्योंकि जैसे ही कोई नेता बम धमाकों के मुद्दे को राजनीतिक रंग देने की कोशिश करता है वैसे ही एंकर बीच में दृढ़ता के साथ न केवल नेताओं को टोकता दिखाई देता है बल्कि कई बार तो उसका लहजा लताड़ का होता है। इस समय ऐसी ही सख्ती की जरूरत है। सबको अपना दायित्व समझना है। जो नहीं समझते उन्हें समझाना है।

    1 comments:

    अनुनाद सिंह said...

    परासर जी,
    क्या दक्षिण भारत राष्ट्रमत अन्तरजाल पर भी उपलब्ध है? इसका पता क्या है?