लकीर पीटने की आदत

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  • Tuesday 12 August 2008
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  • श्रीकांत पाराशर
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  • सांप काटकर निकल जाता है और हम लकीर पर लठ चलाते रहते हैं। हम भारतवासियों की आदत ही ऐसी हो गई है। अगर ऐसा नहीं होता तो बार-बार सौ करोड़ भारतवासियों पर चंद सिरफिरे लोगों द्वारा चलाया जा रहा आतंकवाद हावी कैसे हो जाता? भारत के सिरमौर जम्मू-कश्मीर में दशकों से आतंकवाद की आग लगी हुई है परन्तु राजनीतिक स्वार्थों के चलते विभिन्न राजनीतिक दल अपने अपने नजरिये से घाटी के समीकरण बनाते हैं और कुल मिलाकर इसे पाकिस्तान की करततू बताते हुए आतंकवाद के खात्मे की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते दिखाई देते हैं।
    घाटी में तो आतंकवाद की आग बुझी ही नहीं, देश के अन्य हिस्सों में भी आतंकवादियों ने अपने पैर फैलाने शुरू कर दिए हैं। देश-विदेश में पर्यटन के लिए मशहूर राजस्थान की राजधानी जयपुर, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में अपना एक स्थान बना चुके कर्नाटक के शहर बेंगलूर को आतंकवादियों ने बम धमाकों के लिए इसलिए चुना क्योंकि वे देश की अर्थ व्यवस्था पर भी हमला करना चाहते हैं। यही कारण था कि उनके निशाने पर सूरत भी था। यह तो गनीमत रही कि वहां दो दर्जन जिंदा बम बरामद कर लिए गए और उनको फूटने से पहले निरस्त कर दिया गया। सूरत हीरा उद्योग का एक प्रमुख केन्द्र है। गुजरात में तो अभी भी सांप्रदायिक दंगों के घाव पूरी तरह सूखे नहीं हैं। परन्तु नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में यह प्रदेश विकास के रास्ते पर तेजी से बढ़ रहा है, उसे पटरी से उतारने और सांप्रदायिक सौहार्द को मटियामेट करने की बदनीयत से आतंकवादियों ने अहमदबाद को बम धमाकों के लिए चुना। बेंगलूर में तो धमाकों से एक महिला की मृत्यु हुई परन्तु जान-माल का ज्यादा नुकसान नहीं हुआ। लगता है मानो अहमदाबाद के बमों की टेस्टिंग के लिए बेंगलूर को चुना गया हो। जो कुछ भी हो, जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद और सूरत में आतंकवादियों ने जो कर दिखाया है वह पूरे देश की सुरक्षा व्यवस्था को एक खुली चुनौती है। अब आतंकवाद केवल घाटी तक सीमित नहीं रहा है बल्कि उसने पूरे देश के प्रशासनिक ढांचे, सुरक्षा व्यवस्था और कानून को ठेंगा दिखाते हुए यह चैलेन्ज कर दिया है कि 'रोक सको तो रोक लो।' अब यह इस देश पर है कि वह इस चुनौती को कितनी गंभीरता से लेता हैऔर उससे कैसे निपटता है।
    जब-जब भी आतंकवादी वारदातें होती हैं तब-तब नेताओं द्वारा घड़ियाली आंसू बहाए जाते हैं। कमांडो की एक टुकड़ी से घिरे हमारे नेता आतंकवादियों को ललकारने के लहजे में कहते हैं कि गुनहगारों को बख्सा नहीं जाएगा। एक के बाद एक नेता, चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के, घटना स्थलों का दौरा करते हैं, अस्पतालों में घायलों से मिलते हैं और मृतकों के परिवार वालों के लिए कुछ लाख के मुआवजे की घोषणा कर देते हैं। इसके बाद बस वे यह इंतजार करते हैं कि अगर गुंजाइश हो तो विरोधी दल पर ऐसी कार्रवाई के हालात पैदा करने की तोहमत मढ दी जाए। अगर केन्द्र और राज्य में अलग-अलग सरकारें हो तो उनके लिए यह काम और आसान हो जाता है। इसके बाद गड़े मुर्दे उखाड़ने का सिलसिला प्रारंभ होता है। किस दल की सरकार, कब, किस प्रकार ऐसे हालात से निपटने में नाकाम रही, इसका खुलासा किया जाता है। एक पार्टी का प्रवक्ता दूसरी पार्टी के प्रवक्ता से टीवी चैनलों पर ऐसे वाकयुध्द करता दिखाई देता है मानो इसी के जरिए वे आतंकवाद से भी लड़ लेंगे और उसका सफाया करने में कामयाब हो जाएंगे। यह है ऐसे हादसों के बाद की असली तस्वीर । जब-जब भी मौका मिलता है, हमारे देश का एक वर्ग अमेरिका की खुलकर मुखालफत करता है। कई राजनीतिक पार्टियां भी अमेरिका पर अपनी बंदूक ताने ही रखती हैं परन्तु अमेरिका की अच्छाइयां ग्रहण करने की पहल कोई नहीं करना चाहता। अमेरिका ने 7/11 की वारदात के बाद एकजुट होकर हर स्तर पर जिस तरह से आतंकवाद का मुकाबला किया, क्या वह जज्बा अनुसरण करने योग्य नहीं है?लेकिन अनुसरण करे कौन? जरूरत किसे है? हमारे नेता तो हर वक्त सुरक्षा घेरे में रहते हैं। अगर जान जोखिम में है तो वह आम आदमी की है। यदि गहराई से चिंतन करें तो यह स्पष्ट दिखाई देगा कि आतंकवाद से निपटने के लिए न तो हमारा कानून सक्षम है और न ही राजनीतिक इच्छा शक्ति। इसके साथ ही घिसे-पिटे उपकरणों एवं जंग लगी जांच प्रणालियों से लैस हमारे खुफिया और पुलिस तंत्र, ऊपर से उसे भी काम करने की पूरी स्वतंत्रता नहीं मिलती। ऐसे हालातों में आतंकवाद पर काबू पाया कैसे जाए?
    इतना ही नहीं, देश के बजट में सुरक्षा पर जो खर्च के प्रावधान है वे भी पर्याप्त नहीं हैं, यही कारण है कि बड़ी-बड़ी वारदातों को अंजाम देने में आतंकवादी कामयाब हो जाते हैं। आतंकवादियों के पास अति आधुनिक हथियार होते हैं। हम नए नए हथियारों एवं सुरक्षा उपरकणों पर खर्च करने की जरूरत नहीं समझते। यह भी एक विडंबना है। उनका संचार तंत्र हमारी सुरक्षा एजेंसियों से भी ज्यादा हाई-फाई होता है। उनके पास अकूत धन है जो हमारे पुलिस तथा प्रशासनिक तंत्र के भ्रष्ट कर्मचारियों और अधिकारियों को ललचाने के लिए पर्याप्त होता है। वे घटना को अंजाम देकर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं। अगर कभी पकड़ में आ भी जाते हैं तो कानूनी दांव पेंचों से सबूतों के अभाव में सजा से बच जाते हैं। जिन्हें सजा सुना दी जाती है उन्हें भी राजनीतिक कारणों से सजा नहीं मिल पाती। किसी न किसी राजनैतिक, सांप्रदायिक या राजनयिक कारणों से ऐसे मामले लंबित पड़े रहते हैं।
    स्वाभाविक है कि जब खुलेआम आतंकी वारदात को अंजाम देने वाले जेल की सलाखों के पीछे जाने से बच जाएंगे तो फिर उनके हौसले बुलंद क्यों नहीं होंगे? हमारे यहां आपराधिक जांच के लिए न तो संबंधित एजेंसियों के पास अधुनातन उपकरण हैं और न ही देश में पर्याप्त ऐसी प्रयोग शालाएं हैं। जहां गहन जांच के आवश्यक उपकरण हों। दूसरी तरफ कानून को और सख्त बनाने की बात की जाए तो हमारे यहां राजनीतिक अड़ंगेबाजी शुरू हो जाती है। इसका फायदा अपराधियों को मिलता है। जरूरत आज इस बात की है कि आतंकवादी घटनाओं को राष्ट्रीय संकट के रूप में लिया जाए और सारे दल एकजुट होकर इससे लोहा लेने की ठान लें। फिर आतंकवाद किस खेत की मूली है? देश के नेताओं की राजनीतिक इच्छा शक्ति से ज्यादा मजबूत तो आतंकवादियों का हौसला है जो बार-बार भारत जैसी विशाल शक्ति को ललकारने में भी गुरेज नहीं करते। आतंकवादी हमारी पुलिस और खुफिया एजेंसियों से ज्यादा चुस्त, चालाक और आधुनिक तंत्र से सुसज्ज्ाित हैं जबकि हमारे देश में सिस्टम के विभिन्न स्तरों पर भ्रष्ट, अक्षम और यहां तक कि देशद्रोही मानसिकता के लोग भी आसानी से मिल जाते हैं, अन्यथा अमेरिका और इजरायल ने जिस प्रकार से आतंकवाद की कमर तोड़ दी, क्या हम ऐसा नहीं कर सकते थे? एक तरफ आतंवादी संगठित हो रहे हैं। विभिन्न आतंकी संगठन एक दूसरे की मदद करते हैं। उनमें तालमेल दिखाई देता है जबकि दूसरी तरफ वोट बैंक की राजनीति, धर्म-समुदाय को लेकर व्यक्ति व्यक्ति में भेद पैदा करने को आमादा हमारे राजनेता बारूद के ढेर पर बैठे भारत की वास्तविक चिंता कब करेंगे, यही एक विचारणीय प्रश्न बना हुआ है। आज राजनीतिक सौदेबाजी अहम हो गई हैतथा देश की सुरक्षा हाशिए पर चली गई है। ऐसे में अब आम आदमी को जागना होगा तथा देश के सभी राजनीतिक दलों पर यह दबाव बनाना होगा जिससे कि देश की सुरक्षा को प्राथमिकता सूची में सर्वोच्च स्थान पर रखकर आम नागरिक की सुरक्षा एवं राष्ट्रीय अखंडता बरकरार रखने के उपाय किए जा सकें। आतंकवादी अपनी अगली वारदात को अंजाम दें, उसके पहले सोचने-समझने और उपाय खोजने की जरूरत है। सांप काटकर लौट जाए और बाद में हम लकीर पीटते रहें, उससे क्या लाभ है?

    6 comments:

    vipinkizindagi said...

    aapki post bahut achchi hai....

    Udan Tashtari said...

    अमेरिका ने 7/11 की वारदात को 9/11 कर लें.

    -बढ़िया आलेख..

    Asha Joglekar said...

    bahut acche mudde uthayen hain aapne. Kuch upay bhi suzate to lekh aur bhi upyogi ho jata. 9/11 ko huee thi america men wardat. 7/11 ko to bambai ke dhamake hue the.

    Gajendra said...

    सधा लेख लिखा है श्रीमान ने।

    शोभा said...

    बहुत अच्छा लिखा है। स्वागत है आपका।

    Amit K Sagar said...

    बहुत सुंदर. सधा. लिखते रहिये.